तब रोशनी भी हो गई बेअसर।
हम वजन रदीफ़ में उलझे रहे
रह गई काफिये में ही कसर।
हर सिम्त खुद को ही ढूँढ़ा किये
खो गए हम भीड़ मे इस कदर।
लगाया है जब से दर्द को गले
ज़िन्दगी भी हो गई दर-बदर।
ता - उम्र फ़ूल ही फ़ूल थे बोए
जाने क्यों कँटीली हो गई डगर।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
बहुत ही उम्दा सृजन।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
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