Monday, October 17, 2022

{३७८} हाँ शायद कल





बर्फ हो गईं संवेदनाएं 
अकड़ रहे हैं शब्द 
कँपकपा रही हैं भावनाएं 
कामनाएं चुप .........
और 
कल्पना स्थिर .........

आवाज अँधेरे कुहासे में 
डूबी हुई .........
सपाट पृष्ठ पर 
अंकित हो रही 
दहकती हुई चीख .........

चटक रहे हैं 
सन्नाटे .........,

सपने सर्द लिहाफ में 
सिकुड़ते जा रहे .........,

भोग रहा हूँ 
कर्मों का फल .........। 

पर कब तक?
कब मिलेगा 
सुकर्म का फल .........

बाट जोहता प्रारब्ध 
समय को बीतते देख रहा है। 

सोंच रहा है .........
शायद कल 
अच्छा होगा समय,
कल बदलेगा भाग्य,
शायद कल आएंगें 
खिलखिलाते हुए क्षण,
कल शांत होगा मन,
शायद कल ..................
हाँ, शायद कल ..................।। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

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