Monday, January 16, 2023

{४१३} बूढ़ा मन काँपने सा लगता है





कँगूरों पर जब शाम उतर आती है 
ये बूढ़ा मन काँपने सा लगता है......। 

खुशियों के चमन के फूलों की पाँखेँ 
काँटों से सजी सेज हो जाती है......

पोर-पोर तक थक कर चूर हुए दिन की 
उखड़ती साँसें तेज हो जाती हैं......

अम्बर को भेदते शिखरों का मस्त राही 
रपटीली ढ़ालों पर हाफने सा लगता है......। 

कँगूरों पर जब शाम उतर आती है 
ये बूढ़ा मन काँपने सा लगता है......।। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Wednesday, January 4, 2023

{४१२} चाँद जल रहा है




हवा में भरी तेजाबी चुभन
चाँद भी जल रहा है,
तड़पती चाँदनी को देख
दिल भी दहल रहा है,
आवाजों को घेरे हुए 
शहरों में पसरे हैं सन्नाटे,
बेवफा हुआ मंजर,
मोहब्बत निगल रहा है।। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Thursday, December 8, 2022

{४११ } आ लौट चलें फिर उन उजालों की ओर




आ लौट चलें फिर उन उजालों की ओर 
उन जवाबों के लिए उन सवालों की ओर। 

वो गली राह देखती होगी अभी भी हमारी 
उस राह से दूर रह के बीते सालों की ओर। 

टूटे ख्वाबों से अभी भी उलझा बैठा होगा 
मेरी नादान मोहब्बत के खयालों की ओर। 

रेशमी छुअन भी होगी फिर से ज़र्रे-ज़र्रे में 
ताजी हवा आएगी फिर मतवालों की ओर। 

पतवार हौसलों की तुम जरा थाम के चलो 
रकाबत में हूँ ले चलो मुझे हमालों की ओर। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 


रकाबत = प्रेम में प्रतिद्वंदी 
हमाल = सहयोगी 

Saturday, December 3, 2022

{४१० } तुम्हारी आँखें




तुम्हारी आँखें,
बड़ी ही खूबसूरत हैं। 

बिजलियाँ गिराती हैं,
बड़ा कहर ढ़ाती हैं,
समन्दर सी गहरी हैं, 
जादू है, सम्मोहन हैं,
नदी की तरंग हैं, 
उदात्त लहरी हैं,
बड़ी कातिल हैं,
बड़ी शातिर हैं,
गहरा नशा हैं,
छलकता जाम हैं,
लगाती मुझपे इल्जाम हैं,
गुमसुम सी रहती हैं 
पर, बहुत कुछ कहती हैं,
मेरी उजली सुबह हैं,
मेरी नशीली शाम हैं,
देती है मेरे दिल को 
एक प्यार भरा पैगाम है,
ये तुम्हारी आँखें।। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Sunday, November 27, 2022

{४०९} शब्दों का क्या?




शब्द,
शब्दों का क्या?

शब्द तो ढ़ेरों हैं 
अर्थ भरे और निरर्थक भी,
जिसकी जैसी ज़ुबान 
उसके पास वैसे ही शब्द। 

कुछ शब्दों पर भरोसा है 
कुछ भरोसे के काबिल नहीं,
जिन शब्दों पर भरोसा है 
वह ज़ुबान से निकलते नहीं,
जिन शब्दों पर भरोसा नहीं 
वे कूद-कूद कर बाहर आना चाहते हैं। 

शब्दों का क्या?
शब्द अब पत्थरों की तरह 
बेजान हो चलें हैं,
बस उनका इस्तेमाल किया जा रहा है,
बेवजह का उन्माद खड़ा करने के लिए। 

शब्द,
शब्दों का क्या??

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Wednesday, November 23, 2022

{४०८} टूटते बिखरते सपने





जैसे-जैसे बढ़ता है सपनों का आकार 
वैसे-वैसे ही बढ़ती जाती है 
अपने हँसते हुए चेहरे को 
सपने में देखने की अभिलाषा, 
फिर, कहीं दूर 
सपने में सुनाई पड़ती है 
अपने ही सिसकने की आवाज,
और छिन जाता है 
सुन्दर सलोना सपना। 

सुन्दर सलोने सपने को 
बिखरते हुए,
टूटते हुए,
अब नहीं देखा जाता। 

चलो,
अब त्याग ही देते हैं 
इन टूटते-बिखरते 
मायावी सपनों को देखना,
और निकल चलते हैं 
इन ख्वाबों की कफ़स से
कहीं दूर, बहुत दूर।। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Sunday, November 20, 2022

{४०७} बस मैं जिन्दा हूँ





बस मैं जिन्दा हूँ। 
है मुझको आभास,
बचा फकत अहसास,
कीमत में दे दिया 
उसूलों को अपने,
ले ही लिया सन्यास,
खामियों का पुलिंदा हूँ,
बस मैं जिन्दा हूँ। 

बिखरता हूँ और टूटता हूँ 
अन्दर अन्दर तड़पता हूँ 
तिल तिल खोखला होता हूँ 
खुद से खुद ही बात करता हूँ 
बिना परवाज़ का परिंदा हूँ,
बस मैं जिन्दा हूँ।। 

                                                                                      -- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Thursday, November 17, 2022

{४०६ } नज़्म कहाँ रखी है मैंने





कब से ढूँढ़ रहा हूँ 
रिसालों में,
नई-पुरानी 
किताबों के वर्क में,
नज़्म कहाँ रखी है मैंने?

नज़्म को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मिल जाते हैं 
कलम, दवात, कोरे कागज 
और मेरी बनाई हुई 
तेरी तस्वीर,
लेकिन नज़्म 
अभी भी नहीं मिलती। 
नज़्म कहाँ रखी है मैंने?

नज़्म में हरफ़ों से खिंची 
तेरी तस्वीर थी,
मेरा तसव्वुर था,
मेरी उम्मीद थी
और तुम थी,
नहीं मिलती है नज़्म। 
नज़्म कहाँ रखी है मैंने?

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Saturday, November 12, 2022

{४०५ } मोहब्बत





मोहब्बत,
जो न दिखाई देती है 
और न ही सुनाई देती है,

मोहब्बत तो बस 
सच्चे दिलों को 
महसूस होती है,

मोहब्बत, 
सुकून भी देती है 
पर उससे कहीं ज्यादा 
दिलों मे दर्द देती है, 

मोहब्बत से मिला यही दर्द
आशिक का इनाम है,
और यही दर्द 
आशिक की 
बेशुमार दौलत भी।। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Wednesday, November 9, 2022

{४०४ } क्या पढ़ें हम दर्द की व्याकरण





क्या पढ़ें हम दर्द की व्याकरण 
ज़िन्दगी कट रही चरण चरण। 

सच को भी वो सच कहते नहीं 
आचरण पे पड़ा हुआ आवरण। 

मोह किससे अब कहाँ तक रहे 
बँध न पाते अब नयन से नयन। 

सत्य, सत्य को ही न पहचानता 
हो गया है यह कैसा वातावरण। 

भटकते हुए बीत रही उम्र सारी 
मिली न कहीं आशा की किरण। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल