Wednesday, February 29, 2012

{ १०५ } मुकद्दर पर विश्वास नही है





मेरा हबीब, मेरा दिलनशीं, अब मेरे पास नही है
कैसे हाले-दिल बयाँ करूँ, दिल में हुलास नही है।

हँसता हुआ चेहरा, पर टीस सी चुभती है दिल में
इस मुस्तकबिल से मुमकिन कोई निकास नही है।

लफ़्ज़ों की अपनी हैं सरहदे कैसे बयाँ हो हाले-दिल
मेरे खामोश लबों से मेरे दिल का एहसास नही है?

हम थे जितने करीब, अब उतने ही दूर हो गये हैं
महजूर हूँ, नसीब में अब शायद इख्लास नही है।

बे-नियाज़ हूँ या कि बेकरार हूँ कुछ भी पता नही
तुमसे बिछडने का गम, क्या कुछ खास नही है?

हुस्नो-इश्क की कैद से रिहा मुझको कर दिया
यही लगता है कि ये इंसाफ़ की इजलास नही है।

फ़िर भी गुले-ख्वाहिश दिल में खिलाये रखता हूँ
गुलज़ार-गुलिस्ताँ हैं, पर कहीं एशोनशात नही है।

किस्मत ही अब मिलायेगी किसी रंगीन मोड पे
ये मुराद तो है, पर मुकद्दर पर विश्वास नही है।


________________ गोपाल कृष्ण शुक्ल

हुलास=आनन्द
मुस्तकबिल=भविष्य
महज़ूर=वियोगी
इख्लास=दोस्ती, प्रेम
बे-नियाज़=विरक्त
इजलास=न्यायालय
एशोनशात=सुख-चैन


Monday, February 27, 2012

{ १०४ } मनोदशा....






मैं आदमी हो कर आज मर गया
क्या मैं फ़र्ज़ अपना पूरा कर गया।

न रह गया है अब घर-बार ही कोई
कहता है ज़माना, मैं क्या कर गया।

वक्त पर ही गुलशन में है गुल खिला
वक्त पर ही यह गुल भी गुज़र गया।

शौके आवारगी कभी रही नही अपनी
फ़िर क्यों मैं आज इतना सिहर गया।

हाथ खाली हैं और जेबें भी हुई खाली
इसी लिये अपना दिल आज डर गया।


............................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, February 26, 2012

{ १०३ } पैगामे-इश्क





इश्क ने भेजे हैं हसीन पयाम आपके लिये
दिल ने भेजे है लाखॊं सलाम आपके लिये।

हैरत है देखकर आपकी आँखों कि तिश्नगी
आ जाइये हाजिर है ये गुलाम आपके लिये।

बिजलियों और घटाओं की आशनाई में सजी
मस्त मौसमे-बहार का मुकाम आपके लिये।

इश्क को अपना धर्म इश्क को इबादत कहिये
भेजा है आशिकी का ही ईनाम आपके लिये।

मुझमे तुमने, तुझमे हमने इश्क ही है देखा
इस लिये भेजा इश्क का पैगाम आपके लिये।


........................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Saturday, February 25, 2012

{ १०२ } दिल करता है हाय हाय






हुआ है मेरा दिल दीवाना करता है हाय हाय
कोई नही है जो मेरे लिये प्रेम तराना गाये।
..................... दिल करता है हाय हाय।।

तकदीर भी बना गई है मुझे ऐसा वीराना
हर शमा जिसका बदन ही झुलसाती जाये।
......................दिल करता है हाय हाय।।

वृदावन बरसाने में ढूँढा मैने गलियों गलियों
मिली नही मेरी राधा जो मेरे संग रास रचाये।
.........................दिल करता है हाय हाय।।

राधा बिन मै विराना बस रोता रहता निश-दिन
मुझ गरीब की सुने न कोई सब मन मे मुस्काये।
.............................दिल करता है हाय हाय।।


......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Thursday, February 23, 2012

{ १०१ } दिल नही काबू मे






इश्क में इस दिल ने कितना गम उठाया है
दिन हो या रात हो इश्क ने सिर्फ़ रुलाया है।

तबीब भी न कर सकेंगे इलाज इस दिल का
ऐसा जख्म मेरी माशूक ने दिल पे लगाया है।

महजबीं तो सिर्फ़ खेल समझते हैं इश्क को
उस बेदर्द को मैंने दिल से अपना बनाया है।

न दिन को चैन है, न रात को मिलता सुकून
कमबख्त इश्क मेरे दिल में इतना समाया है।

न दिल ही है काबू में, न मैं ही हूँ अपने बस में
इश्क ने मुझे इतना पागल-दिवाना बनाया है।


..................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


तबीब=हकीम, वैद्य


Wednesday, February 22, 2012

{ १०० } भाग्य पथ






अगरू की बाती है
गंध, धूप बाती है
धूम्र की महक है
जलन की कसक है।

राहें हैं, तिराहें हैं
हर ओर चौराहे हैं
गलियाँ हैं, मोड हैं
कराहों की होड है।

सरकता जा रहा समय चक्र
निश्चित है सबका काल चक्र
बीत जाता कुछ मनमाफ़िक सा
कुछ दिखलाता अपनी चाल वक्र।

तपश्चर्या का महा पथ है
साधना का राज पथ है
धर्म भाव बनाता इसे सुपथ है
यही मानव का भाग्य पथ है।।


....................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ ९९ } दर्द के पैबन्द







तुम भी बदले हम भी बदले पर ये हालात न बदले
न ही खुश तुम न खुश हम पर ये सवालात न बदले।

इश्क के इस चिथडे बदन पर सभी हैं पैबन्द दर्द ही के
जुनूँ पर तंज सा करते रहते पर ये हालात न बदले।

दरिया की मौजों संग भटका जाने कितने घाव मिले
डगर-डगर गूँजे नग्मे दर्द भरे, पर ये हालात न बदले।

जल कर बुझना तो मुकद्दर ही था चिरागों का फ़िर भी
हवाओं को बेचजह रोका किया पर ये हालात न बदले।

दिल की तलाश में ही नाकामे-मोहब्बत के सफ़र में हूँ
हूँ दिल-शिकस्ता जीस्त भर गमों के लम्हात न बदले।



......................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ ९८ } पी, शराब पी - ४






जिओ जीस्त की हर घडीजी भर के और पी, शराब पी
उठा लुत्फ़ ज़िन्दगी के हर लम्हे का और पी, शराब पी।

रख कायम हौसला, बुजदिल बनेगा तो पग-पग मौत है
अरे ओ बावले, जीना है जीस्त तो शान से पी, शराब पी।

महफ़िले जानाँ हो, मक्तल हो, या हो सागरे - मयखाना
जिस जगह भी जाओ, जब भी जाओ बस पी, शराब पी।

जिन रास्तों पर जमा है भीड उनमे मंजिल का क्या पता
खुद बनाओ राह अपने लिये फ़िर आराम से पी, शराब पी।


............................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



महफ़िले जानाँ=प्रेमी की महफ़िल
मक्तल=कत्लगाह


Tuesday, February 21, 2012

{ ९७ } पी, शराब पी - ३





याद हैं इजहारे - मोहब्बत के पल जिसमे भी पी, शराब पी।
उन पलों को अपनी याद में जिन्दा रख और पी, शराब पी।

याद दिल में बनाये हूँ जालिम की हासिल करूँ उसका दिल
उसे अपना दिलबर बनाने के लिये मैंने खूब पी, शराब पी।

ऐ जालिम इतनी बेरुखी से न पेश आ दुखता है मेरा दिल
जान ले लेंगी मेरी दूरियाँ तेरी, आ पास आ, पी शराब पी।

मत रख गिला अपने दिलबर से, बेसबब नुक्साँ होगा
अब तखसीसे - मरज यही है, आ पास बैठ, पी, शराब पी।

हर बात जहर सी लगती है, जमाने से भी मिलते जख्म
न हो अफ़सोस, सँभला रहे दिल इसलिये पी, शराब पी।


.................................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


तखसीसे - मरज=रोग का निदान


Monday, February 20, 2012

{ ९६ } पी, शराब पी - २






गमों का कोई इलाज नही, दवा भी नही, केवल पी, शराब पी
गमज़दगी मे और कर भी सकते हैं क्या, बस पी, शराब पी।

क्या - क्या गजल कह दी हैं हमने, गजालाचश्म की जुदाई में
शबे-हिज्राँ में और अब किसका रहा सहारा, बस पी, शराब पी।

दिल बुझा - बुझा सा है और आ गईं शामे-गम की परछाइयाँ
माशूक से दूरी - तनहाई में क्या करूँ, बैठ कर पी, शराब पी।

हजारों जाम से टकराकर किया है हमने अपना जाम खाली
माशूक से है इतनी मोहब्बत मुझे, मैने खूब पी, शराब पी।

मोहब्बत में कहाँ गजब है मिलना - बिछड जाना माशूक से
मुझ सा दीवाना देख के न हो हैरान, आराम से पी, शराब पी।


................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Sunday, February 19, 2012

{ ९५ } पी, शराब पी - १






कल हमने दिलबर की याद में कितनी ही शराब पी
आँखों मे तैरे नक्श, दिल में दर्द, होठों से शराब पी।

दिलरुबा भी गाफ़िल मुझसे, अपने भी ठुकरा गये
मैं हूँ दिल-शिकस्ता, इसलिये तनहा पी, शराब पी।

साथ नही है हमसफ़र तो क्या करें सैर गुलशन की
दूर हो अगर मयखाना, घर पे बैठ कर पी, शराब पी।

एक लम्बी उम्र बसर की है हमने गमे-यार के साथ
तुमको दो ही दिन भारी जुदाई के, आ पी, शराब पी।


............................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ ९४ } अजीज यादे





खुश्बू तेरे बदन की मेरा पीछा किये जाती है
तेरी अजीज यादें मेरी उमर बढाये जाती हैं।

हम तडपते हुए उदासी के समन्दर हो गये
खामोश निगाहें मेरी धडकने बढाये जाती हैं।

कहते हैं लोग सपना सुबह का सच बोलता
शब करवटॊं में फ़ज़र सपने सजाये जाती है।

अब तो शायद मै अपने हश्र को भी तरस जाऊँ
कमबख्त मौत भी हरबार मुँह चिढाये जाती है।

तेरा आशियाना भी मुझसे बहुत दूर तो है मगर
वस्ल होगा जरूर, रोज शबे-हिज्र बताये जाती है।


.................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


फ़ज़र-प्रातःकाल
शबे-हिज्रे=विरह रात्रि

Saturday, February 18, 2012

{ ९३ } टूटी मोहब्बत






दो घडी मयस्सर हो जाये दिलबर का हमसफ़र होना
उस घडी को ही कहते हैं सुनहरे सपनों का बसर होना।

मै तमाम दूर आ चुका हूँ मुझे साहिल से आवाज न दे
अब तो रास आने लगा है हमको बस दीदा-ए-तर होना।

तुम पर बरसती रहें तमाम महकते गुलों की ही खुश्बुयें
हर विलादत में चाहूँ मैं तेरी ही मोहब्बत का सजर होना।

तोड कर दिल मुड के भी न देखा, ये कैसा है मुकद्दर मेरा
मुसलसल जारी है इन ख्वाबों के महल का खंडहर होना।

तू नही मेरे मुकद्दर में पर मेरी मोहब्बत के साये तेरे लिये
मेरे मुकद्दर में ही लिखा है शायद बस यूँ ही दर-बदर होना।

मुझे इन हादसों ने संवार कर मेरा रंग-रूप ही बदल दिया
कब चाहा था मैने प्यार में ठुकराया हुआ सुखनवर होना।


............................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



दीदा-ए-तर=भीगी आँख
विलादत=जन्म
सजर=पेड
मुसलसल=लगातार
सुखनवर=गजलकार, शायर, कवि


Friday, February 17, 2012

{ ९२ } इश्क का अंजाम






उनकी खुशी कौन निहारे, हमको गम की शाम बहुत
हर पल ही जब दिल तडपे, कैसे कहें आराम बहुत।

इश्क मे कैसी शानो-शौकत, इश्क केवल अपनापन
इश्क की मीनारों को अक्सर मिलती मलाम बहुत।

अच्ल औ’ मसर्रत शैदाई का, सबको है नसीब कहाँ
हम जैसे गम के मारों को मयखाने की शाम बहुत।

हमने की इबादत हमेशा और कदम बोसी इश्क की
बेवफ़ाई औ’ रुसवाई का हमको मिला ईनाम बहुत।

इश्क मे बदनामी मिलती, चाहे जितना सादिक हो
इश्क में यारों हम हो गये गली-गली बदनाम बहुत।

इश्क जुआँ, इश्क बीमारी, इश्क न जाने दुनियादारी
इश्क न करना मेरे यारों, इसका है बुरा अंजाम बहुत।


....................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


मलाम=डाँट-डपट
वस्ल=मिलन
मसर्रत=साथ, संग
शैदाई=प्रेमी
सादिक=प्रेमी


Thursday, February 16, 2012

{ ९१ } दिल की कही





खूब कही हैं हमने इश्क और प्यार की गज़लें
कुछ रुसवाई की, कुछ हुस्नो-दीदार की गज़लें।

कुछ में कही माशूक की कसमें कुछ मे रुसवाई
कुछ आई दिल से निकल कर बेजार सी गज़लें।

दिखी है कुछ सुखनों मे ज़िन्दगी बहुत करीब से
हाँ ! कुछ बयाँ हो गईं संसार-ईसार की गज़लें।

कुछ ने दिलाई मुझे जमाने से बहुत ही रुसवाई
दिल का फ़साना भी बयाँकर गईं प्यार की गज़लें।

जाने कैसा मिजाज बना जाने क्या दिल ने कहा
आज बस यूँ ही रख दीं चँद अशआर की गज़लें।


................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


बेजार=अप्रसन्नता
सुखन=गज़ल
ईसार=स्वार्थत्याग


{ ९० } वक्त





वक्त कब कहाँ ठहरा है।

वक्त तो अन्धा-बहरा है
वक्त पर बैठा पहरा है
कभी यह लगे सुनहरा है
कभी यह बहुत गहरा है।
वक्त कब कहाँ ठहरा है।।

वक्त करता उत्साह निराला है
वक्त कभी सफ़ेद कभी काला है
वक्त आफ़त का परकाला है
वक्त ही प्राणों का रखवाला है
वक्त से ही आदमी सिहरा है।
.....वक्त कब कहाँ ठहरा है।।

वक्त भाग्य हमारा लिखता है
वक्त नही किसी को दिखता है
वक्त हमको कभी अखरता है
वक्त सब का जरूर निखरता है
तब हम कहते वक्त सुनहरा है।
........वक्त कब कहाँ ठहरा है।।

वक्त कराता है आत्म-दर्शन
वक्त सिखाता न करो प्रदर्शन
वक्त ही बताता करो निदर्शन
वक्त ही वक्त का आकर्षण
सब से नाता वक्त का गहरा है।
........वक्त कब कहाँ ठहरा है।।


................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, February 15, 2012

{ ८९ } ढूँढता हूँ





न खजानों को ढूँढता हूँ, न जागीरों को ढूँढता हूँ
करे ज़िन्दगी रोशन, उन सितारों को ढूँढता हूँ।

कायनात तुमसे है, लोग नाहक सवाल पूछते हैं
बेसब्र हूँ, छूटे फ़ुरकत, उन सहारों को ढूँढता हूँ।

मोहब्बत बेहिसाब, अब तो होश भी गवाँ बैठा
मासूम दिल तडपे, बिछडे बहारों को ढूँढता हूँ।

मद्धिम हुआ आफ़ताब, ऐसी है सिफ़त तुममे
चाँदनी रात में उन जैसे नजारों को ढूँढता हूँ।

परख आशिकी की, सीरत और नफ़ासत से है
जो मुझे बनाये सोना उन अँगारों को ढूँढता हूँ।

जब भी निकला इबादत को मैखाने चला गया
और भी हैं लोग ऐसे, उन दिलदारों को ढूँढता हूँ।

अपने रंगों को भर सकूँ मैं इस जमाने में यारों
ज़िन्दगी के फ़लक पर उन इशारों को ढूँढता हूँ।

शहर की बेरुखाई से अब तो जी भर चुका मेरा
सुकूँ के लिये बियाबान मे दियारों को ढूँढता हूँ।

मै ढूँढता हूँ यहाँ-वहाँ, जाने क्या-क्या ढूँढता हूँ
तलाश अब भी बाकी उन निर्विकारों को ढूँढता हूँ।


............................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


कायनात=ब्रह्मांड
फ़ुरकत=जुदाई
आफ़ताब=सूर्य
सिफ़त=खूबी
सीरत=गुण
नफ़ासत=मृदुलता
फ़लक=आसमान, चित्र-पटल
दियारा=दीपक
निर्विकार=आत्म-तत्व



{ ८८ } काँटों की भाषा





काँटों की परिभाषा क्या है ?
क्या तुम जानते हो ?

काँटों की भाषा क्या है ?
क्या यह भी तुम समझते हो ?

काँटों की भाषा को समझना
एक कला है।
इसको जीवन जीने की
कला भी कह सकते है।

काँटों की अपनी
कोई बोली नही होती,
वह तो
आप जैसा समझते हैं
वैसा ही बोलती है।

हाँ
यह जरूर है कि
काँटों की भाषा समझने पर ही
सुखद-स्पर्श की परिभाषा
समझ में आती है।

पुष्प-स्पर्श की
कोमलता का आभास
हमको तभी होता है
जब हम
काँटों की चुभन को
पहचानते हैं।
उससे उठने वाली
टीस को महसूस करते है।

यही काँटों की भाषा है
और यही काँटों की परिभाषा।।


.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, February 13, 2012

{ ८७ } अदब अब सिखाता कौन है





प्यार के गीतों की गंगा मे नित नहाता कौन है
अब हर घडी प्रेम-रस को ही गुनगुनाता कौन है।

दिन के जगते ही नैन नीर भर कर रोती हैं यादें
रात को सुनहरे सपनों की लोरी सुनाता कौन है।

नफ़रतों के नाम लिखी जिसने अपनी ज़िन्दगी
ऐसे बदराह इंसान को यहाँ सिर झुकाता कौन है।

लुटते रहें हमसफ़र सामने चाहे अपनी निगाह के
दुनिया में अब गैर को अपना दोस्त बनाता कौन है।

बस छोटे खयालों के लम्बे जुम्लों की हकीकतें हैं
मकसदे-ज़िन्दगी और अदब अब सिखाता कौन है।


.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



Sunday, February 12, 2012

{ ८६ } जीवन के रंग





जीवन-पथ में हमने रंग बहुतेरे देखें हैं
कुछ उजले औ’ कुछ पीले-काले देखे हैं।

अब तक जितनी उम्र नही देखी
अनुभव उससे ज्यादा देखे है।
अपने इस सुघर नीलाकाश मे
कुछ काले-अँधियारे बादल देखे हैं।।

पंछी बन-बन कर आसमान में
हमने ऊंची-ऊंची उडान भरी है।
पर जब-जब भी हमने नीचे देखा
अपनी धरती पर कालिमा ही झरी है।।

वेदनायें अब क्रीत दासियाँ सी हो गईं हैं
भावनायें दर्द समेट बियावान में खो गईं हैं।
क्या करूँ, क्या न करूँ कुछ सूझता नही है
मार्ग में अंधकार घनघोर, कुछ बूझता नही है।।

अब आसरा है सिर्फ़ ईश का अपने
वे ही बुद्धि हमारी निर्मल करें।
मार्ग दिखलाया "जगन्नाथ" ने
जो, उसको कंटक विहीन करें।।


..................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ ८५ } वरक-ए-ज़िन्दगी





ज़िन्दगी__________

ज़िन्दगी है मेरे भाई
कोई ज़रीदा नही
जिसका हर वरक
काली स्याही से रंगा जाये।

ज़िन्दगी मे अधिकतर
ऐसे ही वरक लिखे जाते हैं
जहाँ कलम तो चलती है
पर वरक--------
सादे के सादे ही रह जाते हैं।
--------सादे ही रह जाते हैं।।


................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


ज़रीदा=अखबार
वरक=पन्ना

Saturday, February 11, 2012

{ ८४ } मंजिल फिसलती रही





मेरी गिरफ़्त से मंजिल फ़िसलती रही
मुझसे तेज मेरी ज़िन्दगी चलती रही।

हर कहीं ढूँढा मिल सकी न एक झलक
दिल पर सिर्फ़ बिजलियाँ गिरती रहीं।

अब काँटों पर प्यार लुटाते जा रहे हैं हम
फ़ूल सी ये ज़िन्दगी खारों से भरती रही।

बेवफ़ा पर यकीं करता रहा अपना समझ
ताउम्र ज़िन्दगी गले हादसों के लगती रही।

देखते कुछ है, बयाँ कुछ और ही कर रही
ये ज़िन्दगी बस हकीकत से छुपती रही।


..................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Friday, February 10, 2012

{ ८३ } बस तुम ही हो...





बस तुम ही हो......................

बस तुम ही हो......................
एक मासूम अजूबी सी
ऊपरवाला चाह कर भी
दुबारा ऐसी रचना नही कर सका
किसी नदिया की तरह
हँसती - मचलती
इठलाती - बलखाती.....

जिस डगर से
जिस राह से गुजरती हो
तुझे देखने वाले सब
सन्न से रह जाते हैं
हर पत्ता, हर डाली
सावन की घटायें
और यहाँ तक... अब तो...
यह मधुमास भी
मुझसे तेरा पता पूँछता है

काश !
मैं जानता होता
तुम्हारा पता - ठिकाना

तब तुम...
सिर्फ़ मेरी...
और मै..
सिर्फ़ तुम्हारा होता

सिर्फ़ तुम्हारा.......
सिर्फ़ तुम्हारा.......


............................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, February 7, 2012

{ ८२ } धर्म बडा या देश ?





धर्म बडा या देश ?
करो मत इसमें अन्तर विशेष ।

दोनो का रखो मान
मत करो अभिमान
दोनो हैं एक-दूसरे के पूरक
जन-जन तक पहुँचाओ
महापुरुषों का यह सन्देश ।

जोड-घटा कर अगर
फ़िर भाग करोगे
तो
क्या रह जायेगा शेष ?

समझ लो यह गणित
धर्म भी है बडा
और बडा है देश ।।


.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ ८१ } मए-पैमाना





ज़िन्दा रहने के लिये जरूरी है मए-पैमाना कोई
क्या यूँ ही बेवजह कहीं जाता है मयखाना कोई।

जरूरी है क्या मौत की वजह बताओ शराब को
मौत को तो मिल ही जायेगा नया बहाना कोई।

दर्दो-गम, दिले-जख्म और दुनियावी फ़रेबों को
मेरे शिकस्ता दिल से हटाता है मए-पैमाना कोई।

इन सागरो-मीना को अभी न हटाओ सामने से
बहुत याद आ रहा है आज पुराना याराना कोई।

ऐ दोस्तों, ये पैमाने मोहब्बत का भरम पाले है
वरना आता नहीं मेरे पास इश्के-दीवाना कोई।

............................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, February 6, 2012

{ ८० } सफ़रे-ज़िन्दगी





इकरामे-ज़िन्दगी के सफ़र को तय मुझको ही तो करना है
मिले जख्म तो जीना है, साँस लेते हुए भी तो मरना है।

रह गई ख्वाहिश दिल में, न बने हम दिलबर किसी के
इस सजी महफ़िल में, तनहा मुझ ही को तो रहना है।

भरी है रंजोगम और पीर से ज़िन्दगी की गुजरी कहानी
मयस्सर नहीं लबों को हँसी पर हँसते हुए ही तो रहना है।

लफ़्ज़ है, इबारत है, जुबाँ भी है, पर कहना कुछ भी नहीं
हैं लब सिले, खामोश हूँ, चुप रहते हुए ही तो सहना है।

पर्वतों से भी बुलन्द हो जायें चाहे कफ़स की सब दीवारें
बेडी पाँवों मे, हाथों मे हथकडी मंजिल पाकर तो रहना है।

अपने ख्वाबों की मंजिल से भी आगे, अभी दूर है चलना
उजली चाँदनी या अमावस की रात, रस्ता तय तो करना है।

हर लम्हा लडता रहूँगा हर चुनौती जँग से इस यकीं के साथ
इकरामे-ज़िन्दगी के सफ़र को तय मुझको ही तो करना है।


................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


इकरामे-ज़िन्दगी=भगवान की दी ज़िन्दगी
कफ़स=कारागार


Wednesday, February 1, 2012

{ ७९ } दस्तक





दिलो-जाँ में सिर्फ़ खुश्बुएँ ही खुश्बुएँ रह गईं हैं
तू तो चली गई मेरे पास तेरी आहटें रह गईं हैं।

आज ये कैसा दौर आ गया है इस मयखाने में
खाली हैं ज़ाम - पैमाने सूखी कराबें रह गईं हैं।

महजबीं से सिर्फ़ वफ़ाए इश्क ही तो चाही थी
होठ सिल लिये है, खंजर सी अब्रुएँ रह गईं हैं।

ऐसे भी लम्हे आए जो दिल में जख्म बन गये
चीख कर निकलती हमारी ख्वाहिशें रह गईं हैं।

खो चुका तुम्हे पर तेरा इन्तज़ार न होगा खत्म
तेरे दिल के दरवाजे पर मेरी दस्तकें रह गईं हैं।


......................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


कराब=शराब की सुराही
अब्रुएँ-भौं