Sunday, November 27, 2022

{४०९} शब्दों का क्या?




शब्द,
शब्दों का क्या?

शब्द तो ढ़ेरों हैं 
अर्थ भरे और निरर्थक भी,
जिसकी जैसी ज़ुबान 
उसके पास वैसे ही शब्द। 

कुछ शब्दों पर भरोसा है 
कुछ भरोसे के काबिल नहीं,
जिन शब्दों पर भरोसा है 
वह ज़ुबान से निकलते नहीं,
जिन शब्दों पर भरोसा नहीं 
वे कूद-कूद कर बाहर आना चाहते हैं। 

शब्दों का क्या?
शब्द अब पत्थरों की तरह 
बेजान हो चलें हैं,
बस उनका इस्तेमाल किया जा रहा है,
बेवजह का उन्माद खड़ा करने के लिए। 

शब्द,
शब्दों का क्या??

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Wednesday, November 23, 2022

{४०८} टूटते बिखरते सपने





जैसे-जैसे बढ़ता है सपनों का आकार 
वैसे-वैसे ही बढ़ती जाती है 
अपने हँसते हुए चेहरे को 
सपने में देखने की अभिलाषा, 
फिर, कहीं दूर 
सपने में सुनाई पड़ती है 
अपने ही सिसकने की आवाज,
और छिन जाता है 
सुन्दर सलोना सपना। 

सुन्दर सलोने सपने को 
बिखरते हुए,
टूटते हुए,
अब नहीं देखा जाता। 

चलो,
अब त्याग ही देते हैं 
इन टूटते-बिखरते 
मायावी सपनों को देखना,
और निकल चलते हैं 
इन ख्वाबों की कफ़स से
कहीं दूर, बहुत दूर।। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Sunday, November 20, 2022

{४०७} बस मैं जिन्दा हूँ





बस मैं जिन्दा हूँ। 
है मुझको आभास,
बचा फकत अहसास,
कीमत में दे दिया 
उसूलों को अपने,
ले ही लिया सन्यास,
खामियों का पुलिंदा हूँ,
बस मैं जिन्दा हूँ। 

बिखरता हूँ और टूटता हूँ 
अन्दर अन्दर तड़पता हूँ 
तिल तिल खोखला होता हूँ 
खुद से खुद ही बात करता हूँ 
बिना परवाज़ का परिंदा हूँ,
बस मैं जिन्दा हूँ।। 

                                                                                      -- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Thursday, November 17, 2022

{४०६ } नज़्म कहाँ रखी है मैंने





कब से ढूँढ़ रहा हूँ 
रिसालों में,
नई-पुरानी 
किताबों के वर्क में,
नज़्म कहाँ रखी है मैंने?

नज़्म को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मिल जाते हैं 
कलम, दवात, कोरे कागज 
और मेरी बनाई हुई 
तेरी तस्वीर,
लेकिन नज़्म 
अभी भी नहीं मिलती। 
नज़्म कहाँ रखी है मैंने?

नज़्म में हरफ़ों से खिंची 
तेरी तस्वीर थी,
मेरा तसव्वुर था,
मेरी उम्मीद थी
और तुम थी,
नहीं मिलती है नज़्म। 
नज़्म कहाँ रखी है मैंने?

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Saturday, November 12, 2022

{४०५ } मोहब्बत





मोहब्बत,
जो न दिखाई देती है 
और न ही सुनाई देती है,

मोहब्बत तो बस 
सच्चे दिलों को 
महसूस होती है,

मोहब्बत, 
सुकून भी देती है 
पर उससे कहीं ज्यादा 
दिलों मे दर्द देती है, 

मोहब्बत से मिला यही दर्द
आशिक का इनाम है,
और यही दर्द 
आशिक की 
बेशुमार दौलत भी।। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Wednesday, November 9, 2022

{४०४ } क्या पढ़ें हम दर्द की व्याकरण





क्या पढ़ें हम दर्द की व्याकरण 
ज़िन्दगी कट रही चरण चरण। 

सच को भी वो सच कहते नहीं 
आचरण पे पड़ा हुआ आवरण। 

मोह किससे अब कहाँ तक रहे 
बँध न पाते अब नयन से नयन। 

सत्य, सत्य को ही न पहचानता 
हो गया है यह कैसा वातावरण। 

भटकते हुए बीत रही उम्र सारी 
मिली न कहीं आशा की किरण। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Monday, November 7, 2022

{४०३} तेरे ही इंतज़ार सी हुई ज़िन्दगी





रूठी रूठी बहार सी हुई ज़िन्दगी 
टूटी टूटी पतवार सी हुई ज़िन्दगी। 

न रोशनी है न जलता  हुआ चराग 
उजड़ी टूटी मजार सी हुई ज़िंदगी। 

न मँजिल, कारवाँ न  हमराही कोई 
उड़ते  हुए  गुबार सी  हुई ज़िन्दगी। 

जब  से  जुदा  हुए हम - आप सनम 
फुरकत मे गुनहगार सी हुई ज़िंदगी। 

हम रब से क्या माँगें खुद अपने लिये 
एक तेरे ही  इंतज़ार सी हुई ज़िन्दगी। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 


फ़ुरकत = वियोग 

Saturday, November 5, 2022

{४०२ } देने वाले ने क्या ज़िन्दगी दी है





देने वाले ने  क्या  ज़िन्दगी दी है 
क्यों  मेरे साथ  दिल्लगी की है। 

हम ने  बरसों  जिगर जलाया है 
फिर कहीं दिल में रोशनी की है। 

आप से दोस्ती का  एक हासिल 
सारी दुनिया से  दुश्मनी की है। 

लोग  मरते हैं  ज़िन्दगी के लिये 
हमने मर मर के ज़िन्दगी जी है। 

हम  को तो मारा  है ज़िन्दगी ने 
लोग कहते हैं  खुदकुशी की है। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Thursday, November 3, 2022

{४०१ } अक्सर ध्यान तुम्हारा आता है





अब भी अक्सर ध्यान तुम्हारा आता है
देखूँ ? गुजरा  वक्त  दोबारा  आता है। 

आह नहीं आती है अब तो होंठों तक 
सीने में   बस  एक  अँगारा  आता है। 

जाने किस दुनिया में सोती जागती है 
जिन आँखों में ख्वाब तुम्हारा आता है। 

दिन भर परिंदों की आवाजें  आती हैं 
रात को घर में जंगल सारा  आता है। 

रातों मे  जब  चाँद - चाँदनी आते हैं 
याद  बहुत  तेरा  रुखसारा आता है।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Wednesday, November 2, 2022

{४०० } नींद हैं और न हैं ख्वाब





नींद हैं और न हैं ख्वाब 
ये कैसी पिलाई शराब। 

दिल में  वीरनियाँ  बसीं 
हैं खटकते गुलो गुलाब। 

अश्कों ने उम्र भर लिखी 
मेरे ही गमों की किताब। 

सह न पाओगे तुम कभी 
मेरा ढ़लता हुआ शबाब। 

आँखों-आँखों में ही मिला 
मुझे  सवाल  का जवाब। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

{३९९} साया कहाँ गया





पूरी तरह से सच कभी  ये बताया कहाँ गया 
होते  ही गुम  उजाले के  साया  कहाँ  गया। 

कट कर दरख्त छत बनी, साये की चाह में 
लेकिन कोई भी पेड़ फिर लगाया कहाँ गया। 

जिद थी जिन्हे  बुझाने की  जलते हुए  चराग 
कोई चराग  फिर उनसे  जलाया कहाँ गया। 

मैं बन - सँवर के बैठा  रहा सारी  शब मगर 
ख्वाबों में  तेरे मुझ  को बुलाया  कहाँ  गया। 

ये जान भी हाजिर है  सनम आप की खातिर 
कहते सब हैं पर कभी ये निभाया कहाँ गया। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Tuesday, November 1, 2022

{३९८} मेरी भी अजब कहानी





मेरी भी अजब कहानी। 
जैसे हो पीर पुरानी।। 

मैं चला निरंतर अन्तर में विश्वास भर 
सूखी-सूखी आँखों में अतृप्त प्यास भर 
न पहुँच सका तुझ तक कभी भी 
छोड़े पथ पर चरण निशानी। 
मेरी भी अजब कहानी।। 

अर्थ क्या शब्द ही रहे अनमने 
खिंचे-खिंचे से और रहे तने-तने 
मीठे-मीठे बोलों मे खारे-खारे से 
वेदना अश्रु बने पानी-पानी। 
मेरी भी अजब कहानी।। 

उजियारी रातों मे अंधियारा जैसे 
छाई काली घटा छँटेगी कैसे 
दीन दृगों में आँसू ही आँसू 
कौन सुने करुणा की वाणी। 
मेरी भी अजब कहानी।। 

                                                                                            -- गोपाल कृष्ण शुक्ल