Sunday, February 24, 2013

{ २४७ } कैसे कह दूँ ये प्यास नही है





कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।

आस जब-तब लुभा रही है
प्यास और जगा रही है
मन हुआ तपता धरातल
दूर कहीं दिखता है जल
कैसे कह दूँ ये हुलास नही है।
कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।।

मोहित है मन तरंगित काया
जाने किसका नेह समाया
वश नही मन पाँखों पर
बैठे नैन चिरैय्या किन शाखों पर
कैसे कह दूँ ये मन का मधुमास नही है।
कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।।

वो कौन मुझको दूर से पुकारे
नेह दृष्टि से मुझको निहारे
अनुभूतियाँ नित हो रही सघन
देह की बढ रही तपन
कैसे कह दूँ ये आस नही है।
कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।।


................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Saturday, February 23, 2013

{ २४६ } हम और तुम





एक दूसरे का
हाथ थामे
नदी के तट तक
आ गये है
हम और तुम।

पागल सर्द हवा में
उसी तरह
लहरा रहा है
तुम्हारा आँचल
जैसे
नदी बहती है
कल-कल, कल-कल।

नदी में
जल का
सतत प्रवाह
वैसा ही है
जैसे
हमारा प्रेम अथाह।

मँत्रमुग्ध सा
मैं अपलक देख रहा हूँ
क्षितिज में
जहाँ पर आपस में
मिल रहे हैं
दो प्रेमी बादल
वो भी थामें हैं
एक दूसरे का हाथ
बिलकुल उसी प्रकार
जैसे
इस वक्त
नदी के तट पर
खडे हैं
हम और तुम।।


...................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, February 20, 2013

{ २४५ } कहाँ अपना ठिकाना है






थकन तो अगले सफ़र के लिये एक बहाना है
जिस्म बदलती रूह का कहाँ एक ठिकाना है।

पिये दर्द के प्याले मन ढकने को आँसू हैं कम
लाखों की भीड यहाँ, पर कोई नही पहचाना है।

दर्द ही पाया दर्द सँजोया दर्द ही जीता आया हूँ
दर्द ही है तकदीर हमारी, दर्द मे ही मुस्काना है।

जिस-जिस चेहरे में जब भी अपनापन है ढूँढा
उनसे पाया मैने हरदम दर्द का ही नजराना है।

खूब रोया खून के आँसू खुद को तनहा देख कर
हो अचम्भित खोजता, कहाँ अपना ठिकाना है।


......................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



Saturday, February 16, 2013

{ २४४ } यौवन





चँचल मन
सुगठित तन
दोनो का मिश्रण है यौवन।

चँचल नयन
हृदय की तपन
दोनो का मिश्रण है यौवन।

सरकता अवगुंठन
गर्वित अविचलन
दोनो का मिश्रण है यौवन।

चँचल चितवन
लाज और सिहरन
दोनो का मिश्रण है यौवन।

नख-शिख आकर्षण
श्रँगार और आभूषण
दोनो का मिश्रण है यौवन।

भुजपाश और आलिंगन
क्रीडा और क्रन्दन
दोनो का मिश्रण है यौवन।

साँसों की थिरकन
कसता भुजबन्धन
दोनो का मिश्रण है यौवन।

जब झूमे तन
जब नाचे मन
दोनो का मिश्रण है यौवन।


__________________ गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ २४३ } अब मन शुद्ध नही होते






अब मन शुद्ध नही होते।।

कपट, छल-छन्द के
गहरे दलदल में
हम रहते हैं सोते।
अब मन शुद्ध नही होते।।१।।

वैमनस्यता के कीचड में
गोते लगाने की आदत से
कभी मुक्त नही होते।
अब मन शुद्ध नही होते।।२।।

खुद को दुख में डुबो
दूसरों के खातिर
दुख की फ़सल है बोते।
अब मन शुद्ध नही होते।।३।।

घृणा, कुण्ठा और पाप की
गठरी सिर पर लाद
जीवन भर हैं ढोते।
अब मन शुद्ध नही होते।।४।।


------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल

Friday, February 15, 2013

{ २४२ } आया बसन्त






आया बसन्त
छाया बसन्त
प्रफ़ुल्लित मन-उच्छवास
मन-मुदित धरती-आकाश।।

अनुगुँजित हो उठा अन्तरमन
नर्तित है जन-जन, हर तन
बजे बाँसुरी स्वाँस-स्वाँस
प्रफ़ुल्लित मन-उच्छवास
मन-मुदित धरती-आकाश।।

आई अभिनन्दन की बेला
वन्दन, अर्चन की बेला
प्रति क्षण नर्तन और रास
प्रफ़ुल्लित मन-उच्छवास
मन-मुदित धरती-आकाश।।

प्रेमल पवन, सुरमई दिशायें
स्वप्निल नयन मुदित मुस्कायें
बिखरा चहुँ-दिश हास-परिहास
प्रफ़ुल्लित मन-उच्छवास
मन-मुदित धरती-आकाश।।

आया बसन्त
छाया बसन्त
प्रफ़ुल्लित मन-उच्छवास
मन-मुदित धरती-आकाश।।

------------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Thursday, February 14, 2013

{ २४१ } तनहाई में जब कभी...






तनहाई में
जब कभी
अपने ख्वाबों में
तुमसे मिलता हूँ________

सच बताऊँ प्रियतम
तुम्हे हृदय की
प्रत्येक उमंगों में
प्रतिबिम्बित करता हूँ_________

मानस-दर्पण में
प्रीति-पुष्प के
सुगँधित पराग को
रचता हूँ___________

मानस-पटल पर
कौंधते बार-बार
चन्द्र-सम आकर्षण को
चूमने को आतुर
ओष्ठ____________

प्रेमातुर हृदय के
स्पंदन में
वीणा की ध्वनि और
कोमल कँठ-स्वर का
अभिनन्दन करता हूँ________

तनहाई में
जब कभी
अपने ख्वाबों में
तुमसे मिलता हूँ___________


------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ २४० } एक सन्नाटा






एक सन्नाटा
जो
मेरी किस्मत में
समा गया है।

एक पल को भी
मुझसे अलग
नही होता है।

दमघोंटू भीड में भी
वो कहीं
नहीं खोता है।

साथ-साथ
चलता है मेरे
एक सन्नाटा
मेरी किस्मत में
समा गया है।।


.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, February 13, 2013

{ २३९ } इश्क का गुलाब






एत्माद की जमीं पर ही खिला करता इश्क का गुलाब
लिखो वरक पर वरक, सँवर जाये इश्क की किताब।

दुनिया में मजहबे-इश्क को निभाना जरा मुश्किल है
भ्रम में उलझी हुई है दुनिया पर कहते इश्क है खराब।

वो क्या समझ सकेंगें कभी किसी के पाक इश्क को
जो न लहरायें परचम और न गायें इश्क का इंकलाब।

इश्क का फ़लसफ़ा समझना हर किसी की कूबत नहीं
इश्क सिर्फ़ इश्क ही है इसे कुछ और न समझे जनाब।

अब दुनिया कुछ भी समझती रहे पर मेरा यही सच है
इश्क ही है अब मेरी जन्नत इश्क ही है मेरा आफ़ताब।


--------------------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Tuesday, February 12, 2013

{ २३८ } मधुयामिनी






उसने अपने घर के
वातायन पर
अपनी कोहनी को
टिका कर
अपनी सुकोमल
हथेलियों को हिलाते हुए
गुलाब की पाँखुरी जैसे
मादक नयनों से
मेरी तरफ़
प्रेम भरी दृष्टि से देखा
और कहा_________
आओ ! आओ !! चले आओ !!!

मैने कहा,
ओ ! मधुयामिनी,
तुम निर्झर झरने सी
स्वच्छ और पावन
और मैं,
एक यायावर________
कितना बेमेल है ये संगम....

उसने अपनी
सुकुमार ग्रीवा को
हिलाकर कहा......

अरे पगले !
सब तो
तुम पर अर्पण कर दिया
मधुर-मधुर
मदिर-मदिर_________

मैं अवाक,
अपलक, निशब्द हो
उसे देखता ही रह गया।।


----------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


Saturday, February 9, 2013

{ २३७ } मोहब्बत छुपाया नही करते





इश्क समझने में वक्त जाया नही करते
जब हो गया इश्क तो ठुकराया नहीं करते।

जिनके दिल लबरेज़ हैं सच्ची मोहब्बत से
वो मोहब्बत किसी से छुपाया नही करते।

है भरोसा जिन्हे अपने इश्क पे, हमदम पे
वो हुस्न को देख कर भरमाया नहीं करते।

लगाता है इश्क की दरिया में जो भी डुबकी
वो दरिया छोड साहिल पे जाया नहीं करते।

रँगे-इश्क अल्फ़ाज़े-इश्क औ’ धडकने इश्क
नेमतें इश्क की इनसे घबराया नहीं करते।



--------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


Friday, February 8, 2013

{ २३६ } पूरा शहर बीमार नज़र आता है






पूरा शहर अब बीमार नज़र आता है
यहाँ हर शख्स बेज़ार नज़र आता है।

नाज़ुक कोयल अपनी गज़ल पढे कैसे
सजा कौव्वों का दरबार नज़र आता है।

निर्झर झरने कैद हो चुके हैं चट्टानों में
गुलो-गुलशन खरज़ार नजर आता है।

प्यार, आरजू, खुश्बू, चाहत हुई गायब
बस दर्दो-गम का मीनार नज़र आता है।

सच्चाइयाँ दफ़्न हो चुकी हैं कब्रगाह में
हर तरफ़ झूठ का बाज़ार नजर आता है।


____________________________ गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, February 6, 2013

{ २३५ } सिर्फ़ तुम्हारे लिये





जिक्र जब-जब आपका चलता है
दिल मेरा मचल-मचल उठता है।

जब से आप आए मेरे चमन में
गुलशन महका-महका करता है।

घटती-बढती हैं दिल की धडकने
जब भी अक्श आपका दिखता है।

कोयल की कुहू-कुहू अब हरतरफ़
दिल का सितार भी बजा करता है।

अब हर वक्त रहती होठों पर हँसी
दिल आपका शुक्रिया अदा करता है।


_____________________ गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २३४ } बेगुनाही की सजा






दूर-दूर तक नजर आता क्या है
सिर्फ़ अश्कों का बहता दरिया है।

लुट गईं बहारें, छा गया पतझड
उदास चमन, गुमसुम फ़िज़ा है।

ओझल है सहर की नजर से सहर
मँजिल बहुत दूर बुझ रहा दिया है।

दिल पर जख्म हुए गहरे - गहरे
ज़िन्दगी मे ये भी हुआ हादसा है।

ज़िन्दगी की हैं ये ही सच्चाइयाँ
बे-गुनाहों को ही मिली सजा है।


_______________ गोपाल कृष्ण शुक्ल


सहर = सबेरा