Thursday, June 30, 2011

{ ४३ } इश्क के बगैर







ज़िन्दगी बेनूर हो चुकी है इश्क के बगैर,

अब तो दिन गुजर रहे हैं, इश्क के बगैर।


बहुतों ने दिया है हौसला अपने इश्क का,

पर मायूस किया, जी रहा इश्क के बगैर।


मुझको भी एहसास है इश्क मे बेवफ़ाई का,

पर उम्मीदे-वफ़ा में जी रहा, इश्क के बगैर।


जेहन से यादें अब उसकी कभी जाती नहीं,

आँख भी डबडबाई जाती है, इश्क के बगैर।


छा रहे मेरे दिल पर देखो गम के ही बादल,

नही आ रहा अब चैनों-सुकूँ, इश्क के बगैर।


आओ न, आ जाओ न, अब आ भी जाओ,

बीते नही ये गमे-जीस्त, तेरे इश्क के बगैर।



......................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल




Thursday, June 9, 2011

{ ४२ } फ़िजायें भारी







क्यों हो गयी है आज देश की ये फ़िजायें भारी,

अब घुट रहा दम, हो गयी इतनी फ़िजाये भारी।


चैनो-आराम खोया, बहता लहू राहों-चौराहों पर,

कराह हुई मुश्किल, इस कदर है फ़िजाये भारी।


उन्मुक्त हो गगन मे परिन्दे भी अब उड न पाते,

नीड भी रक्षित नही उनका, ऐसी फ़िजाये भारी।


हो चुके जो बदनाम और कलंकित गली-गली मे,

वो सिर उठाये घूमते, कर रहे और फ़िजायें भारी।


गद्दियों पर आज भी वैसे ही जमे है कंस बन कर,

सिहांसन भी हो रहा लज्जित और फ़िजाये भारी।


अब भी समय है उठो, चेत जाओ ऐ कर्मयोगियो,

उखाडो भ्रष्ट सत्ता, करो आजाद फ़िजाये सारी।



...................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल




Monday, June 6, 2011

{ ४१ } मजबूर ज़िंदगी







हम को अब ये जुल्म सहने की आदत हो गयी है,

चुपचाप दर्दो-गम सह लेने की आदत हो गयी है|


अपनी ज़िंदगी एक लाश सी ढो रहे हैं इस दौर में,

इन वहशी दरिंदों को सहने की आदत हो गयी है|


चाँद-तारों पर हुकूमत की तमन्ना भी बुझ चुकी,

जमीं पर बिछी लाशें गिनने की आदत हो गयी है।


आइना भी डरता देख कर इन जालिमों का चेहरा,

इन दरिंदों को सिजदा करने की आदत हो गयी है|


मर चुके पूरी तरह से, रूह भी मर चुकी है हमारी,

सर झुका कर सहने-जीने की आदत हो गयी है|


मत झकझोरो हमें, रगों का खून पानी हो चुका है,

मुक्कदर समझ भुला देने की आदत हो गयी है|



.................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ ४० } सुर्ख गुलाब







नैनो मे नीर है, अनकहे प्यार की पीर है,

हर आईने मे छिपी प्यार की ही तस्वीर है।


लौट आयी हर खुशी, मस्ती रंगीनी अपनी,

प्यार ने ही बदल दी देखो मेरी तकदीर है।


बन्द आँखों से इश्क को पहलू में अपने देखा,

ये ख्वाब हुए सब हकीकत, यही मेरी जागीर है।


इश्क मे ऐसा डूबा कि होश भी खोना पडा मुझे ,

रंगीनियों मे तबदील हो गई देखो मेरी तद्बीर है।


और भी बहुत खूबरू देखे है इस जहाँ मे हमने,

मेरे इश्क की नफ़ासत, सब से अलग शमशीर है।


देखो महकता सुर्ख गुलाब मेरे घर पर भेजा है,

ये उसी की है शरारत, इश्क मेरा बहुत शरीर है।



.............................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल



१- तदबीर = कोशिश

२- खूबरू = खूबसूरत

३- नफ़ासत = नजाकत

४- शमसीर = तलवार

५- शरीर = चंचल

Thursday, June 2, 2011

{ ३९ } जिंदगी की किताब







फलसफा जिंदगी का लिखना है, जिंदगी की किताब में लिख,

पढ़ कर लोग हंसेगे-रोएगें इसलिये जिंदगी की किताब में लिख|


ज़िन्दगी के सफ़र मे ये कदम कभी रुकते नही, थकते भी नही,

सफ़र-ए-ज़िन्दगानी रहेगा जारी, ज़िन्दगी की किताब मे लिख।


किसी से तो ज़िन्दगी की खुशी और गमो को कहना ही पडेगा,

फ़ट रही हो छाती दर्दे-गम से तो ज़िन्दगी की किताब मे लिख।


ज़िन्दगी भर तूफ़ान के ही आसार है और तूफ़ान आते भी रहेंगे,

न कर किसी से शिकवा-शिकायत, ज़िन्दगी की किताब मे लिख।


मिटा न पाये जिस हरफ़-ए-ज़िन्दगी को समन्दर की भी लहरे,

वो किस्सा-ए-ज़िन्दगानी सिर्फ़ ज़िन्दगी की किताब मे लिख ।





.................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल