Wednesday, May 28, 2014

{ २९२ } अब नहीं सही जाती






बन्द कमरे में
अकेले बीतती यह रातें
अब नहीं सही जाती।

शर्म के नाखूनों से
खुरची हुई दीवारें
कभी हम जीते
कभी तुम हारे,
कभी तुम जीते
कभी हम हारे
जैसी
गुदगुदाती मनुहारों की यादे
उस पर
घनघोर गरजते बादल
और बरसातें
अब नहीं सही जाती।

सिरहाने रखे दीपक का
बार-बार बुझाना
बदन को छूते ही छुई-मुई सा
सिहर-सिहर जाना
अँधियारे कमरे को
सुवासित गँध से महकाना
अब नही सहा जाता।

बन्द पलकों पर
सुधियों के
खींचे हुए ये चित्र
अब अकेले नहीं सहे जाते।

................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Tuesday, May 20, 2014

{ २९१ } सुख का सागर है अन्तर में






क्या रक्खा इस काया नश्वर में
सुख का सागर है अन्तर में।।

बाहर जग की उष्मा, मरुथल का कोलाहल
बाहर पनपते हैं दँभ-द्वेष और छल-बल
मति-भ्रमित मानव जाने कहाँ भटका करता
बाह्य-रूप बदलता रहता पल में, प्रहर में।।१।।

क्या रक्खा इस काया नश्वर में
सुख का सागर है अन्तर में।।


तर्क हीन इस असत् सत्य में
नियति-नटी के विषम-नृत्य में
नाद-ताल-लय, गति विहीन हो गई
तट-भ्रान्ति समाहित लहर-लहर में।।२।।

क्या रक्खा इस काया नश्वर में
सुख का सागर है अन्तर में।।


संत्रासों के घन, अम्बर में घूम रहे
कुंठाओं के शीशमहल नभ को चूम रहे
बूढ़ी आशाएँ संशय के द्वार खड़ी
जीवन कैद हुआ जर्जर पिंजर में।।३।।

क्या रक्खा इस काया नश्वर में
सुख का सागर है अन्तर में।।


----------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, May 12, 2014

{ २९० } तुमसे ही हुआ जीस्त में उजियारा






दिल में नक्श तुम्हारा ही उतारा है
इश्क मे हमने तुमको ही पुकारा है।

तड़पा तेरे बिन दिल भी रोया किया
देखा है आँसुओं ने ये भी नजारा है।

मेरी खोई हुई हर खुशी मुझे मिल गई
जबसे मिला तेरे प्यार का सहारा है।

खुदा का वास्ता मुझे छोड़ के न जाना
तुमसे ही हुआ जीस्त में उजियारा है।

क्या पूछते हो कि क्या हाल हमारा है
जो हाल तुम्हारा है वो हाल हमारा है।



---------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल