Friday, March 24, 2017

{३३८} डगर जीवन की





कैसे छोड़ूँ जीवन की आपा-धापी, कैसे कुछ आराम करूँ
झाँकूँ अतीत के झरोखों से, थकन मिटाऊँ विश्राम करूँ।

खूब लड़ चुके हम झूठ-फ़रेब से और माथे की लकीरों से
कब तक रहूँ ऐसे जग में, हम यूँ अनजान फ़कीरों से।

छूट गये खेल लुका छिपी के, सुधियाँ हुईं बिसराई सी
कब तक शर्म का पर्दा ओढ़े, साँसें सिमटें सकुचाई सी।

खोये लहलहाते बाग-बगीचे खोई महकती अमराई भी
जाने कब ये बचपन बीता, अब बीत चली तरुणाई भी।

अब कुछ उजले से, कुछ मटियाले, बीते पलों के साए हैं
फ़िर उधड़ी है बखिया यादों की बरबस ही आँसू आए हैं।

............................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, March 18, 2017

{३३७} होली





ऐसी होली मनाओ, मजा आ जाए
दूरियाँ सब मिटाओ, मजा आ जाए।

किसी को छोटा या बड़ा समझो नहीं
खूब रँगो और रँगाओ, मजा आ जाए।

रँग में ऐसे रँग को जमकर मिलाना
भूले अपनो-पराओ, मजा आ जाए।

रँग-गुलाल डालो या न डालो, मगर
जरा सा मुस्कुराओ, मजा आ जाए।

लाख जतन करूँ मगर उतर न सके
रँग इश्क का चढ़ाओ, मजा आ जाए।


.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, March 15, 2017

{३३६} सत्य क्या है?




सत्य क्या है?

क्या दृश्य ही सत्य है,
और अदृश्य असत्य?
या फ़िर,
दोनो ही सत्य हैं?

बहुत उलझा हुआ है प्रश्न
और शायद अनुत्तरित भी।

जो दृश्य है,
उसके होने पर सन्देह नहीं,
उसका होना सत्य है,
परन्तु,
जो दृश्य नहीं
उसे असत्य तो नहीं कह सकते।

शायद,
दृश्य और अदृश्य
दोनो ही सत्य हैं।

क्योंकि,
दृश्य स्वयं दिखता है
और अदृश्य
अपनी अनुभूति कराता है।

परन्तु,
शाश्वत सत्य क्या है?

खोज अभी जारी है
और प्रश्न भी अनुत्तरित।

बुद्धि का व्यायाम
खोल सके शायद कभी
रुद्ध द्वार को,
और पा सकूँ उत्तर
कि
सत्य क्या है।।

.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, March 13, 2017

{३३५} ज़िन्दगी गीत है




ज़िन्दगी गीत है,
बस,
सुर कभी ऊँचे,
कभी मद्धिम होते रहते हैं।

सुर कैसा भी हो,
गीत नहीं रुकना चाहिये।
लय कैसी भी हो,
गीत नहीं रुकना चाहिये।
ताल कैसी भी हो,
गीत नहीं रुकना चाहिये।

ज़िन्दगी गीत है गाओ
और गाते जाओ,
ज़िन्दगी गीत है गुनगुनाओ
और गुनगुनाते जाओ।

ज़िन्दगी गीत है।
ज़िन्दगी गीत है॥

.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल