Wednesday, July 27, 2016

{३३३} काश ! कि पात से हट सके पीत रँग





वही जाना-पहचाना स्थान
वही एकान्त का उपवन
वही पेड़ की शाखा
स्मृतियों में उभरती वही छाया
यहीं पर उगा था
हमारे-तुम्हारे प्रीत का चाँद।

पर, यहाँ का एकान्त
अब हमारा स्वागत नहीं करता
और न ही करता है हमारा इन्तजार
फ़िर भी मैं
आता हूँ यहाँ बार-बार।

कि शायद कभी कोई फ़ागुनी बयार
पातों पर चढ़े पीत रँग को उतार फ़ेंके
और सूखी डालियों में
हरियाए कुछ अपनापन,
जो अलसाई हुई दोपहर में
तुम्हारी बाहों में गुजरती थी,
चिहुँक उठते थे हम
जब चहचहाते हुए पक्षी
अपने घरौन्दों को लौटते
पर हम तब भी होते थे
तुम्हारी बाहों के आगोश में।

पर, शायद अब
न वो शाम होगी
जब द्वार से चिपके तुम
बिदा देते थे मुझे
फ़िर से आने का आमन्त्रण लिये
अपनी भीनी-भीनी, मन्द-मन्द
मुस्कुराहट के साथ।

काश ! कि पात से हट सके पीत रँग
और झूम-झूम झूमे हरियाली
मन्द-मन्द सुगन्धित बयार सँग,
सम्मोहित सा मैं
कसकर समेट लूँ
तुम्हे अपनी भुजाओं में
काश कि.....................।
काश कि....................॥


.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, June 22, 2016

{ ३३२ } तेरा अक्स हमें खूब रुलाता है






जेहन में यादों का काफ़िला आता-जाता है
तनहाइयों में भी दिल कुछ गुनगुनाता है।

कोई दस्तक सी सुनाई दी बंद किवाड़ों पर
शायद कोई दिलजला है जो मुझे बुलाता है।

आँखों में आए बिना ही सपने गुजरते जाते
जो था हकीकत अब ख्वाब हुआ जाता है।

मिलने को आज भी मचलती हैं धडकने
दिल आज भी तेरे लिये ही रूठ जाता है।

आँखों से टपकते हैं आँसू यूँ ही अक्सर
तेरा अक्स हमे अब भी खूब रुलाता है।


................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, June 19, 2016

{ ३३१ } गोरिया करत अपन सिंगार




गोरिया करत अपन सिंगार।
बारन मां मोतिया चमकाये
रोम-रोम महकाए
भरै माँग सेंदुर से जब
दम-दम मुखड़ा दमकाए
जूड़े मां जूही कै माला
जुलुम करै रसनार
गोरिया करत अपन सिंगार।।१।।

कानन मां जगमग बाली-झूमर
गले मां हार लटकाए
लाल-लाल आंखिंन मां ड्वारा
तेहपर काजरु सजाए
गालन मां चकमक-सुरखी चमकै
दिल का कैसे देई करार
गोरिया करत अपन सिंगार।।२।।

हाथन मां चम-चम चूड़ी चमकै
होठन मां लाली सजाए
छम-छम ओहकी पायलिया बोलै
रहि-रहि गोरिया लजाए
अंखियन ते जब चलै दुधारी
फ़ाटत करेजवा हमार
गोरिया करत अपन सिंगार।।३।।

............................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, June 18, 2016

{ ३३० } शायद तब तक उपलब्ध गंगाजल नहीं






कहीं शान्ति का स्थल नहीं
मन विचलित, शान्त-शीतल नहीं
आँखें सन्नाटॊं सी ठहर गईं हैं
विचारों में भी बची हलचल नहीं
निस्तब्ध भटक रहा हूँ दिशा-दिशा
टटोलता हर तरफ़ कोई संभावना
पर मरुस्थल के उद्यानों में
फ़ूटती कोई कोंपल नहीं
होगा नही जन्म जब तक
फ़िर किसी भगीरथ का
शायद तब तक
उपलब्ध गँगाजल नही।।


........................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, May 12, 2016

{ ३२९ } मेरी अम्मा..... प्यारी अम्मा....





जीवन को नाम देती,
होठों को मुस्कान देती,
स्वप्नों को परवान देती,
हौसलों को उड़ान देती,
मेरे दर्द में जो कराह देती,
मेरे माथे पर छलछला आए पसीने को
अपने नरम आँचल से पोंछ देती,
फ़िर प्यार से सर पर हाथ फ़ेर देती,
अपनी ममता भरी छाँव मे ले कर
जो दुनिया के हर दुख से दूर कर देती,

....... ढ़ूँढ़्ता हूँ आज उस आँचल को
जिससे बिछड़ चुका हूँ वर्षों पूर्व............

पर उस आँचल का नरम अहसास
आज भी मुझे दुलरा जाता है,
लगता है कि जैसे तू यहीं कहीं है
 मेरे आस-पास.......................।

मेरी अम्मा.......... प्यारी अम्मा......॥

.............................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

Friday, May 6, 2016

{ ३२८ } मत बोलो ऊँचे बोल





बिक जाओगे यूँ ही माटी के मोल
मत बोलो मुख से इतने ऊँचे बोल।

बातें ही उठवाती हमसे तीर कमान
बदल के रख देती ये सारा भूगोल।

बातें ही मधु, बातें ही हैं बनती तोप
बातों में थोड़ी सी तू मिसरी घोल।

पहुँचे बातें बस उस की ही रब तक
भजन करे जो पर न पीटे वो ढ़ोल।

होएगी एक दिन करम की बारिश
यूँ ही तू बस उसकी ही जय बोल।


.......................................... गोपाल कॄष्ण शुक्ल

Sunday, April 24, 2016

{ ३२७ } मर्जी उसकी





ईश्वर की मर्जी के बिन
एक पत्ता भी न हिलता है
जिसके भाग्य में जो होता
उसको वो सब कुछ मिलता है......|

ईश्वर ही जाने
किसको क्या देना है,
कब देना है,
और क्यों देना है....|

ईश्वर ही जाने
उसको किससे क्या लेना है,
कब लेना है,
और क्यों लेना है.....|

हम मनुज कठपुतली हैं उसकी
हाड़- मांस के पुतले
उसके हिलाए हिलते हैं
जितना जीवन जीवन देता वो हमको
उतना ही बस हम चलते........|
उतना ही बस हम चलते........||


.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, March 21, 2016

{ ३२६ } मन




मन की सुनना,
मन की करना,
मन की सुनते जाना है।

मन ही काशी,
मन ही काबा,
मन ही बेद-पुराणा है।

मन अच्छा तो
जग अच्छा है,
ये मन का भेद पुराना है।

मन जब बच्चा है,
मन तब अच्छा है,
तब ही मन कल्याणा है।

मन चंगा तो
कठौती में गंगा
मन ही स्वर्ण-खजाना है।

मन के हारे हार
मन के जीते जीत
बस इतना ही मन को समझाना है।।

............................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, March 3, 2016

{ ३२५ } ख्वाहिश





अपने सुनहरे ख्वाबों की परतों में
हमने बहुत ही करीने से सजा कर
अपने कुछ टूटे अरमानों के दर्मियाँ
अपनी एक छोटी सी ख्वाहिश रख दी है।

तमाम कोशिशें की मगर
ख्वाहिशें हैं कि पूरी होती ही नहीं
दिन-ब-दिन बढ़ती ही जाती हैं
किसी गहरे अन्धे कुएँ की तरह।

आ सको अगर तो आ जाओ
इस तरफ़ जो कभी भूले से ही तुम
अपनी एक चुटकी भर तमन्ना
हौले से मेरी ख्वाहिशों में मिला देना।

तब शायद पूरी हो सकें
मेरी वो तमाम ख्वाहिशें
जो आज भी अपलक
तुम्हारी ही बाट जोह रही हैं।।

................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, February 25, 2016

{ ३२४ } मोहब्बत





याद है मुझे अपने इश्क की वो कहानी
ख्वाबों में आती हैं वो बाते सुहानी.......।

न जाने क्यों मुझसे रूठी रहती हैं.........
हमारी-तुम्हारी वो बातें पुरानी.............।

मुझको नहीं तनिक भी शऊर...............
जो कह पाऊँ वो बातें जुबानी................।

मुझको तो बस मोहब्बत है तुमसे.........
नहीं आती कहनी वो बातें रूमानी..........।।


................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल

Friday, February 19, 2016

{ ३२३ } स्त्री हो या पुरुष






एक इन्सान सबमें होता है
स्त्री हो या पुरुष----------

एक शैतान सबमें होता है
स्त्री हो या पुरुष----------

जो निज में
इन्सान को बढ़ा ले
शैतान को गिरा दे
वही भगवान होता है
स्त्री हो या पुरुष----------।।


................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, February 15, 2016

{ ३२२ } आज नहीं तो कल हो शायद





सुन्दर लहजा, मीठे बोल, अनोखी बातें
आज नहीं तो कल हों शायद।

हर सिम्त उसकी ही जलवासाजी
आज नहीं तो कल हो शायद।

हर महफ़िल में उसके हुस्न के जलवे
आज नहीं तो कल हो शायद।

फ़िज़ा में खुलूसे-बूए-गुल
आज नहीं तो कल हो शायद।

उसके सर्द दिल में तपिश
आज नहीं तो कल हो शायद।

मिट जाये उसके-मेरे दर्मियाँ का फ़र्क
आज नहीं तो कल हो शायद।

मेरी गज़ल उड़ा दे उनकी रातों की नींद
आज नहीं तो कल हो शायद।

.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल



सिम्त = तरफ़
जलवासाजी = सौन्दर्यपूर्ण उपस्थिति
फ़िज़ा = वातावरण
खुलूसे-बूए-गुल = आत्मीयता के फ़ूल की सुगन्ध

..

Thursday, January 7, 2016

{ ३२१ } लदा काँधों पे अपना सलीब





लगने लगे हैं वो चेहरे कितने अजीब
भूलूँ कैसे उन्हे जो थे दिल के करीब।

फ़िसल गया पहलू से वो हसीं लम्हा
जुड़ा था तार जिससे जो था  नसीब।

कौन है सहारा इस मतलबी जहाँ में
लदा है काँधों पे खुद अपना सलीब।

इश्क का फ़लसफ़ा समझेंगे वो कैसे
जानते नहीं उसे निभाने की तहजीब।

न उठना पड़ॆ कभी तल्खियों के सँग
महफ़िल में बना ले कुछ अपने हबीब।

.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल