Wednesday, June 22, 2016

{ ३३२ } तेरा अक्स हमें खूब रुलाता है






जेहन में यादों का काफ़िला आता-जाता है
तनहाइयों में भी दिल कुछ गुनगुनाता है।

कोई दस्तक सी सुनाई दी बंद किवाड़ों पर
शायद कोई दिलजला है जो मुझे बुलाता है।

आँखों में आए बिना ही सपने गुजरते जाते
जो था हकीकत अब ख्वाब हुआ जाता है।

मिलने को आज भी मचलती हैं धडकने
दिल आज भी तेरे लिये ही रूठ जाता है।

आँखों से टपकते हैं आँसू यूँ ही अक्सर
तेरा अक्स हमे अब भी खूब रुलाता है।


................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, June 19, 2016

{ ३३१ } गोरिया करत अपन सिंगार




गोरिया करत अपन सिंगार।
बारन मां मोतिया चमकाये
रोम-रोम महकाए
भरै माँग सेंदुर से जब
दम-दम मुखड़ा दमकाए
जूड़े मां जूही कै माला
जुलुम करै रसनार
गोरिया करत अपन सिंगार।।१।।

कानन मां जगमग बाली-झूमर
गले मां हार लटकाए
लाल-लाल आंखिंन मां ड्वारा
तेहपर काजरु सजाए
गालन मां चकमक-सुरखी चमकै
दिल का कैसे देई करार
गोरिया करत अपन सिंगार।।२।।

हाथन मां चम-चम चूड़ी चमकै
होठन मां लाली सजाए
छम-छम ओहकी पायलिया बोलै
रहि-रहि गोरिया लजाए
अंखियन ते जब चलै दुधारी
फ़ाटत करेजवा हमार
गोरिया करत अपन सिंगार।।३।।

............................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, June 18, 2016

{ ३३० } शायद तब तक उपलब्ध गंगाजल नहीं






कहीं शान्ति का स्थल नहीं
मन विचलित, शान्त-शीतल नहीं
आँखें सन्नाटॊं सी ठहर गईं हैं
विचारों में भी बची हलचल नहीं
निस्तब्ध भटक रहा हूँ दिशा-दिशा
टटोलता हर तरफ़ कोई संभावना
पर मरुस्थल के उद्यानों में
फ़ूटती कोई कोंपल नहीं
होगा नही जन्म जब तक
फ़िर किसी भगीरथ का
शायद तब तक
उपलब्ध गँगाजल नही।।


........................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल