Sunday, July 28, 2013

{ २७० } मेरे गीतों का सुर कहीं खो गया है






ज़िन्दगी को ज़िन्दगी सा बिताऊँ मैं कैसे
सुर बिना गीतों को गाऊँ मैं कैसे
क्या पाया हमने सब कुछ खो गया है॥
मेरे गीतों का सुर कहीं खो गया है।।१।।

कई गीत लिख चुका विपदाओं के घर मे
कई गीत गा चुका सुविधाओं के सफ़र में
ज़िन्दगी के सफ़र में कोई काँटे बो गया है।
मेरे गीतों का सुर कहीं खो गया है।।२।।

मन में बँधी उमँगे, असहाय जल गईं
अरमान-आरजू की लाशें निकल गईं
कोई तो आकर देखे, मुझे क्या हो गया है।
मेरे गीतों का सुर कहीं खो गया है।।३।।

टूटे वीणा के तार, गीत गाना कठिन है
है समन्दर आँख में, मुस्कुराना कठिन है
ज़िन्दगी दे गई गहरी टीस, दिल रो गया है।
मेरे गीतों का सुर कहीं खो गया है।।४।।


------------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, July 24, 2013

{ २६९ } क्योकि मैं प्रकृति हूँ






शून्य में आकाश मेरी दृश्यता है,
पृथ्वी में रज-कण मेरा अँश हैं,
जल का प्रवाह मेरी कोमलता है,
प्रकाश का आभास मेरी कठोरता है,
वायु में बहाव मेरा रूप है,
अग्नि की ऊष्णता मेरा स्वरूप है,
यग्य की भस्म मेरी दृढ़ता है,
वनस्पतियों की जड़ मेरा विस्तार है,
पर्वत की उत्तुँगता मेरा स्वभाव है,
भग्नता के अवशेष मेरा प्रमाण हैं,
दिशाओं में गंतव्य मेरी साधना है,
संगीत की ध्वनि मेरी लयता है,
समुद्र का कोलाहल मेरा कँठ है,
क्योंकि मैं प्रकृति हूँ।
........... मैं प्रकृति हूँ।।


....................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल