Thursday, May 31, 2012

{१७७ } ढूँढे तुम्हे ये नज़र






शबो-रोज डगर-डगर, ढूँढे तुम्हे ये नजर
हाल मेरा देख, तुम हो कहाँ ऐ हमसफ़र।

न रोऊँ, न हँस सकूँ, न जागूँ न सो सकूँ
कैसी आ गई घडी, है कैसा तेरा ये असर।

रात के ख्वाबों में तू, दिन के खयालों में तू
ज़िन्दगी लगे न ज़िन्दगी, कैसा है ये कहर।

हर तरफ़ छाये अँधेरे, जख्म भी दिये तेरे
जाऊँ तो अब जाऊँ कहाँ, है मेरी किसे खबर।

ज़िन्दगी का सफ़र, बन गया है यादों का घर
न आग हुई, न धुआँ पर जल गया ये जिगर।

तुम यहाँ और वहाँ भी हर तरफ़ आती नजर
थाम लेता मैं तुम्हे काश तुम होते मेरे अगर।


---------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १७६ } तन्हा जीवन





खामोशी ओढे हुये रात,
सूनी-सूनी पगडँडियाँ,
कोई हलचल नहीं,

जीवन में बसी खामोशी
मौत सी डरा रही है।

पर क्यों डरा रही है........?

उस रेतीले बँजर शहर से,
कँटीले झाड से,
जीवन को,

जो महसूस तो करता है
पर कह नही सकता
कि
मैं तन्हा हूँ।
मैं तन्हा हूँ।।


................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, May 29, 2012

{ १७५ } ज़िन्दगी कुछ सुन रही है





सूनी सी पगडँडी पर
एक आस अभी
साँसें ले रही है।

आँखों में निर्जीव आशा
बुझ-बुझ कर
जल रही है।

कोई तो आयेगा
इस राह पर___
देखे हैं चिन्ह मैंनें
जीवन के यहाँ पर___

पदचिन्ह कहो या
साँसों की
धीमी सी आहट।

इँतज़ार में पदचापों की
सरसराहट सुन रही है।

सूनी सी पगडँडी पर
ज़िन्दगी कुछ सुन रही है।
हाँ ! ज़िन्दगी कुछ सुन रही है।।


............................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १७४ } मेरी नींदों को चुराया न करो





इस जहान में कुछ न भाये, ऐसे भाया न करो
चमकते जुगुनू सी, भडी भर को आया न करो।

देखा जब-जब तुमने अपनी कातिल नजरों से
दिल मचला, रूह फ़डकी, यूँ कहर ढाया न करो।

अब मैं लोगों से मिलता नहीं, न याराना ही रहा
मर जाऊँगा तो आओगे, वक्त को जाया न करो।

ये कैसा हादसा, मेरा दीवाना दिल हुआ जख्मी
मुन्तज़िर जवाब का, रगबत को छुपाया न करो।

जागती हुई आँखों में, अब ख्वाब सजा करते हैं
चाँदनी रातों में मेरी नींदों को यूँ चुराया न करो।

दिल टूटा तो मेरे वज़ूद के कोई मायने न रहेंगें
है तुमसे मोहब्बत, इसको यूँ ठुकराया न करो।

हूँ बहुत बे-करार, मिलने की आस कहाँ छूटेगी
आ गये तेरे मुकाम पर, मुझे यूँ पराया न करो।

मोहब्बत दिखाना मोहब्बत, छुपाना मोहब्बत
मैं तेरा दिलबस्त, मुझसे यूँ शरमाया न करो।


.................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


मुन्तज़िर = इन्तज़ार करना
रगबत = प्रेम
दिलबस्त = प्रेमी


Monday, May 28, 2012

{ १७३ } नई रब्त कहाँ से आयेगी





कोई नई रब्त लबों पर अब कहाँ से आयेगी
धडकनों में धडकन अब कहाँ से समायेगी।

दिल में पत्थरों की दीवारें बना ली हैं हमने
गजलो-सुखन जेहन में अब कहाँ से आयेंगीं।

मैं इस सूने - बियावान में कब से भटक रहा
छाया है अँधेरा, रोशनी अब कहाँ से आयेगी।

चमन के गुलों के रँग भी नजरों से ओझल हैं
वो खुशबू, वो मादकता, अब कहाँ से आयेगी।

गमों से लबरेज़, गम के आँसू पीने का आदी हूँ
रिंदी भी यह सन्नाटा अब कहाँ से तोड पायेगी।

गम के खजाने दिल में गहरे तक दफ़्न हो गये
मुस्कुराहट की मेरी अदा अब कहाँ से आयेगी।

लफ़्ज़ अश्कों से ढले, चेहरे की रौनकें हवा हुईं
जुस्तज़ू है, खुशियाँ लौट अब कहाँ से पायेंगीं।


............................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


रब्त = गज़ल
रिंदी = मनमौजीपन
जुस्तजू = तलाश


Sunday, May 27, 2012

{ १७२ } ऐ तन्हाई





ऐ तन्हाई !
बहुत हसीन है तू।

जब भी गुजरती हूँ
यादों की गलियों से
तो लगता है कि
जेहन के बँद दरवाजों पर
यादों का कोई काफ़िला
धीमे-धीमे रेंग रहा है,

उस पल,
फ़िर से
जिन्दा हो कर
यही सदा देती हूँ,

ऐ तन्हाई !
बहुत हसीन है तू।।


............................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, May 26, 2012

{ १७१ } ज़िन्दगी की लक्ष्मण रेखा





ज़िन्दगी स्वयं की
लक्ष्मण रेखा में
कैद है।

जब तक मृत्यु
उसे जबरन
अपने आगोश में
नहीं ले लेती है
उसे कैद ही रहना है।

उसे जीना ही है
उसी सकरे से
दायरे में........।

मगर
फ़िर भी
उसका नाम है
ज़िन्दगी।।


......................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Thursday, May 24, 2012

{ १७० } अपनों के सितम





अपना था जो गिना नही, जो नही मिला दुखी भरपूर हो गये
पाने और खोने की इस दुविधा में, अपनों से हम दूर हो गये।

खुदगर्जी में ही रहे जीते, अब क्या होगा हासिल पछतावे से
अपनों को कर किनारे औरों के गम-खुशियों में चूर हो गये।

किसके आगे हम दुखडा रोंयें, मुझको ही सब मुजरिम माने
नजरों में सभी की गिर गये, अपनो के सितम मँजूर हो गये।

कुछ अपने भी हो गये गैरों जैसे, जख्म दिये हैं गहरे - गहरे
मरहम कितना काम करे जब अपनों से हम मजबूर हो गये।

उलझी पहेली बना अपना जीवन, मिसाल किसकी अपनायें
चमक सकी न अपनी किस्मत, सपने सब चकनाचूर हो गये।


.............................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, May 22, 2012

{ १६९ ) अँगना में हौले-हौले शाम चली आई





अँगना में हौले-हौले शाम चली आई।
भीनी-भीनी मनभावन खुशबू है छाई।।

इन्द्रधनुषी रँग सज गये तन-मन में
मस्त-मस्त पवन सँग डोले परछाई।
अँगना में हौले-हौले शाम चली आई।।

टप-टप बूँदे बरखा की गिरें मोरे अँगना
सोंधी-सोंधी महक मिट्टी की है मन भाई।
अँगना में हौले-हौले शाम चली आई।।

भीग गई मोरे तन की ओढनिया सारी
पर मन की प्यास अबहूँ न बुझ पाई।
अँगना मे हौले-हौले शाम चली आई।।

रँग-बिरँगे फ़ूल खिल उठे मोरे अँगना
कलियन का देख मन-मन हरसाई।
अँगना में हौले-हौले शाम चली आई।।

सुर-ताल में पिया मोरे सरगम गावें
मोरे सजना रस रागिनिया खूब सजाई।
अँगना में हौले-हौले शाम चली आई।।


........................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Sunday, May 20, 2012

{ १६८ } मैं अकेला चलूँगा ऐ मेरे साये




मैं अकेला चलूँगा ऐ मेरे साये,
कोई नही वफ़ा को याद रख पाता है,
क्यो मेरे साथ-साथ तू चला आता है।

ओ नादाँ ! मेरी मंजिल है बेनिशाँ
ओ नादाँ ! तेरा - मेरा साथ कहाँ,
बस्तियाँ छूट गईं है दूर न जाने कहाँ
बाजारें छूट गईं हैं दूर न जाने कहाँ।

मँजिलें टिमटिमायें दूर, बहुत दूर
शमा झिलमिलाये दूर, बहुत दूर,
थक गये हैं पाँव, पड गये हैं छाले
न रुकेंगे अभी, हम ठहरे मतवाले।

मैं अकेला चलूँगा ऐ मेरे साये,
कोई नही वफ़ा को याद रख पाता है,
क्यो मेरे साथ-साथ तू चला आता है।।


............................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १६७ } न कह पाऊँगा





जो मुझ पर बीती है
उसको मैं किसी से
न कह पाऊँगा।

जो दुख उठाये हैं
उनको मैं किसी से
न कह पाऊँगा।

जिन गुनाहो का बोझ
सीने में लिये फ़िरता हूँ
उनको कह देने की
हिम्मत मुझमे नही है,
बस किताबों में लिखी
दास्ताँ अपनी ढूँढता हूँ,
जहाँ-जहाँ लिखे हैं
किस्से मेरे अपने
उनको इन चिरागों की
रोशनी में पढता हूँ,
जानता हूँ मैं कि
जब भी कोई इसको पढ लेगा
वो जरूर मुझसे नफ़रत कर लेगा।

पर, फ़िर भी,

जो मुझ पर बीती है
उसको मैं किसी से
न कह पाऊँगा।

जो दुख उठाये हैं
उनको मैं किसी से
न कह पाऊँगा।।


............................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Thursday, May 17, 2012

{ १६६ } पीते रहो ! पीते रहो !!





पीते रहो ! पीते रहो !! ऐ रिन्द पीते रहो !!!
अभी न रखो जाम
जितना पिलाये साकी, पीते रहो।
पीते रहो ! पीते रहो !! ऐ रिन्द पीते रहो !!!

मये-जाम से मन की लहरें गगनचुम्बी हो रही है
अँधेरी, सूनसान राहें रोशनी से जगमग हो रही हैं
ऐ रिन्द ! मत झुकना बाधायें स्वयं झुक जायेंगी
सुधा-मय पेय बाकी, साँझ से भोर तक पीते रहो।
पीते रहो ! पीते रहो !! ऐ रिन्द पीते रहो !!!

मत खोजो किसी का साथ सब मिथ्या है
अन्त तक साथ नहीं रहे कोई तो क्या है
दर्द दूसरों का कहीं कभी कोई आँकता है
मैखाने के मीत देखो, साकी से मौन न रहो।
पीते रहो ! पीते रहो !! ऐ रिन्द पीते रहो !!!

पीते रहो ! पीते रहो !! ऐ रिन्द पीते रहो !!!
अभी न रखो जाम
जितना पिलाये साकी, पीते रहो।
पीते रहो ! पीते रहो !! ऐ रिन्द पीते रहो !!!


.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, May 16, 2012

{ १६५ } हूरे-जन्नत





खुदा का नूर हो, दिखती जन्नत की हूर हो
दिल की सदा है ये तुम्ही चश्म-ए-बद्दूर हो।

ख्वाबों में हर दिन ये ही सिला खोजते रहे
कैसे करीब आऊँ कि इन्तजार तो दूर हो।

देखूँ, आह भरूँ दम भी निकलेगा एक दिन
तमन्ना नजदीकी की पाले, पर तुम दूर हो।

डूब जाना दरिया में आँखों की रंगत देखकर
सूरत खुदा का नूर औ’ सादगी से भरपूर हो।

फ़ीकी हर मिसाल, तुम जहाँ में हो बेमिसाल
अब हो रहा एहसास, कि तुम मेरे गुरूर हो।


.............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

Tuesday, May 15, 2012

{ १६४ } क्षितिज





दूर, बहुत दूर पर कहीं
हमने अक्सर देखा।

अम्बर के
नीलाभ पटल पर
मटमैली धरती
अपना रंग घोलती।

ये दृष्य देख कर
मेरा मन हुलस उठा
मष्तिष्क में
प्रश्न कौंधा
कैसे पावन-बन्धन में
बाँध रही है
धरती और अम्बर को
यह क्षितिज रेखा।

दूर, बहुत दूर पर कहीं
हमने अक्सर देखा।।


..................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, May 14, 2012

{ १६३ } दिल के बन्द दरवाजे





संकेतों की भाषा जब-कब बोलोगे
बन्द दरवाजे दिल के कब खोलोगे।

सपनों की अट्टालिका है सजी हुई
सुधि के दरवाजों को कब खोलोगे।

पुष्प की पाँखुरी बन वातावरण में
सुगन्ध की मधुर बयार कब घोलोगे।

बाकी हैं अब भी ज़िन्दगी की उमंगें
किसी को सनम अपना कब बोलोगे।

कौन सी ऐसी खता हो गई है हमसे
शबो-रोज सोचूँ, मुँह तुम कब खोलोगे।

प्यार वफ़ा का मतलब तब जानोगे
अपने ही दिल को जब तुम तोलोगे।


..................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Sunday, May 13, 2012

{ १६२ } बुझा हुआ स्वर





पला अभावों के घर, ठोकर खा - खाकर, पीडा पीकर
मौत रोज बताती आकर, क्या करना तुमको जी कर।

जाने कितने जहरीले दिन काट दिये हैं हँसते-हँसते
मर गया समय का सर्प, जहर मेरे जीवन का पीकर।

अपने संघर्षों के प्रश्नों का मैं अनुत्तरित उत्तर ही हूँ
ढहे मंसूबे बडॆ - बडॆ और रेत के महल इस जमीं पर।

वर्तमान के कोलाहल का मैं एक बुझा हुआ स्वर हूँ
भूला रिश्तों को, जी रहा जहरीली हवाओं को पीकर।

अब अभिनय का दौर, सज गये मँच गलियों-गलियों
चका चौंध और कोलाहल में रागमयी स्वर दबा भीतर।


....................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १६१ } एहतराम किया है मैंने





गम और खुशी सबका एहतराम किया है मैने
ऐ ज़िन्दगी तुझको खूबसूरती से जिया है मैने।

कोई मानता नही मेरी इस दीवानगी को ऐ खुदा
पत्थर को भी तो खुदा का ही दर्जा दिया है मैने।

तेरे हर एक खुश-मंसूबों को सहेज कर रखा है
अमानत सा पाला पोसा फ़र्ज अदा किया है मैने।

ज़िन्दादिली की हसरत तूने इस कदर बढा दी
खुद अपनी मैय्यत को काँधा दे दिया है मैने।

तेरे इस जहाँ में जगह-जगह फ़ैले हैं कदरदान
मिले जहाँ-जहाँ, उनको सलाम किया है मैने।

उल्फ़त नही सँभलती, नफ़रत कहाँ थी बस में
इकराम-ए-ज़िन्दगी को खुशी से जिया है मैने।

हर शह को रब पर छोडा और भूले सारी रस्में
बन्दे हैं खुदा के, खुदा को सलाम किया है मैनें।


...................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


एहतराम = सम्मान
खुश-मंसूबों = नेक इरादे
इकराम-ए-ज़िन्दगी = भगवान की दी हुई ज़िन्दगी



Friday, May 11, 2012

{ १६० } स्व-बोध




हृदय की रिक्तता का
अगर बोध हो करना
देखना स्वयं को
और मनन करना।।

हृदय की महानता का
अगर बोध हो करना
देखना किसी महान को
और सम्मान करना।।

रिक्तता और महानता का
अगर अन्तर हो नापना
अपने और उनके अन्तर को
हृदय से अनुमान करना।।


................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १५९ } बीमार है ये ज़िन्दगी




हर घडी बेबस, उदास, खलीउल-इजार है ये ज़िन्दगी
बस जी रहे हैं मजबूरियों में हम, बेजार है ये ज़िन्दगी।

सरताज है कौन अपना, हम ढूँढते फ़िर रहे हैं सब तरफ़
इस आस में ही गुजरता वक्त, इन्तजार है ये ज़िन्दगी।

जब सारा जहाँ खुशहाल है, फ़िर कहर हम पर ही क्यों
खयाल ये जेहन में है कैसे कटेगी, फ़िगार है ये ज़िन्दगी।

मची है हलचल सी दिलो-दिमाग में, हर घडी इम्तिहान,
कमबख्त जियें क्यों इसे, फ़ित्ना-परदाज है ज़िन्दगी।

अपनी तकदीर का रोना लिये अब जायें किसके पास हम
राहत कहाँ, आह कर सकते नहीं, बीमार है ये ज़िन्दगी।


.................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल



खलीउल-इजार = बेलगाम
फ़िगार = जख्मी
फ़ित्ना-परदाज = साजिशी


Wednesday, May 9, 2012

{ १५८ } वृक्ष, एक वृक्ष




वृक्ष, एक वृक्ष,
हरा-भरा
कली-फ़ूलों से लदा
जीवन की अन्तिम साँस तक
सिर्फ़ सुगन्ध लुटाता है।।

वृक्ष, एक वृक्ष,
जिसकी स्निग्ध छाया
हर इसांन को
हृदय से लगाती है
और सिजदा करती है।।

वृक्ष, एक वृक्ष,
धरती पर फ़ूल लुटाता
हर इसांन को
आँसू पी कर
मुस्कुराना सिखाता है।।


............................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, May 8, 2012

{ १५७ } ओ युवाओं..





ओ युवाओं ! भारत के शौर्य, ओ यशस्वी
विश्व में कीर्ति तुम्हारी, बुद्धिमान तपस्वी
ललकार रही आज तुम्हे सियारों की श्रेणी
आई है दूषित करने माँ भारती की वेणी।।१।।

ये नही उषाकाल, है पश्चिम की दिशा लाल
आँधी काली-काली उठती, अब उसे सँभाल
होता आश्चर्य बहुत, तिमिर कैसे नियराया
घर का शेर मरने के क्षण, है लगता बौराया।।२।।

विश्व विजेता संतति हो, कौन टक्कर लेगा
खोलो नेत्र तीसरा, कालकूट धू-धू जल उठेगा
उठो शार्दूल ! अब अरिदल को धूल चटा दो
देश-द्रोहियों को दे सजा, नर्क तक पहुँचा दो।।३।।


.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १५६ } भ्रष्टाचार की फ़सल





सुरसा मुख धारी भ्रष्टाचारी आचरण,
शहर के गन्दे-गलीच नालों के अपने लिये
सुगम पथ को अपनाकर तेज गति से
निच्छल और उन्मुक्त बहने वाली
नदियों में गिरकर, घुल-मिल कर
अब गाँव-देहात के खेत खलिहानों को
सिंचित करने में जुटे हुए है,

भय है कि,
कृषि प्रधान देश भारत का
सरल और मेहनतकश किसान भी कहीं
सुरसा मुख धारी भ्रष्टाचार रूपी फ़सल को
संरक्षित न करने लगे।।


....................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, May 7, 2012

{ १५५ } चेहरा





भीड में खो जाता इंसान का चेहरा

हर तरफ़ घूमता बेईमान का चेहरा

कहीं है हैवान कहीं शैतान का चेहरा

कोई लगा बैठा अभिमान का चेहरा

नही मिलता अब नूरान सा चेहरा

बदलते रंग तिलिस्मान सा चेहरा

आइना बयाँ करे इंसान का चेहरा।।


................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, May 6, 2012

{ १५४ } आइना तरसता है हमारा





हुस्न के अक्स को आइना तरसता है हमारा
दिन ढलते ही दिल डूबने सा लगता है हमारा।

कब समाँ देखेंगे, दिले-जख्म के भर जाने का
बुरा वक्त गुजरने को नही मचलता है हमारा।

आधी-अधूरी ख्वाहिशों का सिलसिला रह गया
मंजिलों से हर वक्त फ़ासला रहता है हमारा।

मैं ही सबब था शायद अपनी इस शिकस्त का
एहसासे-मसर्रत दर पे नहीं रुकता है हमारा।

हमसे उन बीती हुई शामों का चर्चा न कीजिये
एहसास नही है आपको, दिल डूबता है हमारा।


........................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल



एहसासे मसर्रत = खुशी


Saturday, May 5, 2012

{ १५३ } पैसा बोले........




हम क्या बोलें ?
पैसा बोले......
पैसा बोले......

बेबस इसाँ की शुचिता को
भीगी आँखों की सरिता को
सारा जग पैसे से तोले ।

हम क्या बोलें ?
पैसा बोले......
पैसा बोले......

इसके पीछे है दुनिया पागल
साधू-संतों का मन भी घायल
पैसे पर ही सारी दुनिया डोले ।

हम क्या बोलें ?
पैसा बोले......
पैसा बोले......

सुख-सुविधा का ढेर लगा दे
भेद हृदय के सारे खुलवा दे
पैसा बदल दे सबके चोले ।

हम क्या बोलें ?
पैसा बोले......
पैसा बोले......

उसको सुख का आनन्द नही
उसके पुष्पॊं पर मकरन्द नही
बिन पैसे काँटों पर सो ले ।

हम क्या बोलें ?
पैसा बोले......
पैसा बोले......

गुण से ज्यादा अवगुण धन में
कटुता ही कटुता भरता मन में
फ़िर भी मानुष पैसा-पैसा बोले ।

हम क्या बोलें ?
पैसा बोले......
पैसा बोले......


........................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल






Friday, May 4, 2012

{ १५२ } ज़िन्दगी, तुम्हे सँवारते रहे हम




हम जिये भी तुम्हारे लिये मरे भी तुम्हारे लिये
घुटन, दर्दे-दिल बचा है किस्मत में हमारे लिये।

हमने ही फ़ूल बोए थे, खारों को भी सहेजा हमने
अब पराया हो गया वो ही गुलिस्ताँ हमारे लिये।

किस्मत के आगे ये ज़िन्दगी भी हो गई मजबूर
माँगी दुआएँ, बदल न सके किस्मत तुम्हारे लिये।

ज़िन्दगी कभी शैतान, कभी बेमुरव्वत की तरह
ज़िन्दगी मे ढूँढते रहे मासूमियत तुम्हारे लिये।

बेकार सब सुख-सपन हुए, बरबाद साँसें हो गईं
ऐ ज़िन्दगी, तुम्हे सँवारते रहे हम तुम्हारे लिये।


............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Thursday, May 3, 2012

{ १५१ } इंसान का चेहरा




कहाँ खो जाता भीड में इंसान का चेहरा
हर उम्मीद और हर अरमान का चेहरा।

मुक्त बढने का अभी भी एहसास बाकी
क्यों दबाती हैं हवायें अरमान का चेहरा।

बढें भी तो कैसे बढें हम निर्भीक हो कर
यहाँ नोचती वासनायें इंसान का चेहरा।

दरवाजे भी बन्द कर बैठ गये अपने भी
झुकाता उनको सिर ये इंसान का चेहरा।

शबो-रोज ढलते हैं पैबन्दों को सीते-सीते
उमंग, रंगविहीन हुआ इंसान का चेहरा।


....................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १५० } मोहब्बत के रंग




इस दिल को लोग एक जख्म रोज नया देते हैं
क्यों लोग मुझे मोहब्बत के लिये सजा देते हैं।

जुर्म है ? आशिक से मोहब्बत निबाह करना
मिले सजा, हम तो मोहब्बत की दुआ देते हैं।

कितने मस्ताने है मोहब्बते के ये सुहाने सपने
ज़िन्दगी में भरते रंग, नया लुत्फ़ सजा देते हैं।

आह ! ये बारिश का मौसम, ये हवा के झोंके
ये तो मोहब्बत के शोलों को और हवा देते हैं।

कभी बेरुखी, रुसवाई, तो कभी जुल्मो-सितम
ये मेरी मोहब्बत में एक नया रंग सजा देते हैं।

कितने ही रंगों से भरे पडे हैं इश्क के ये नग्मे
दिल में तरंग, मस्ती औ’ अरमान जगा देते हैं।


........................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, May 2, 2012

{ १४९ } तुमको देखा नहीं




जमाना गुजर गया, मुद्दतें बीतीं, तुमको देखा नहीं
तेरी याद बाकी है, अभी भी मैं तुमको भूला नही।

वो कयामत का ही दिन था, जब तुमसे हम बिछुडे
धडकने बढ गईं, दिल अब कहीं भी लगता नही।

सभी आइने मुझको देख के बडे परेशान-हैरान हैं
मैं सामने ही हूँ, पर मेरे चेहरे पर मेरा चेहरा नहीं।

मैं बीमारे-गम, अब हो गई मयखाने से दोस्ती मेरी
पैमाने साथी हैं, कदम डगमगा रहे, पर मैं बहका नहीं।

ये कैसा मौसमे-बहार, मौसमे-गुल चमन में आया है
मेरे जख्मी दिल का कोई जख्म अब तक महका नही।

ये किस मुकाम पर मुझको तनहा छोड कर चल दिये
सफ़र ज़िन्दगी का, कोई रास्ता मुझको दिखता नही।


................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, May 1, 2012

{ १४८ } मौत जरूरी है





खुश-ज़िन्दगी की शुरुआत के लिये मौत जरूरी है
दर्दे-दिल, दर्देजाँ से निजात के लिये मौत जरूरी है।

ज़िन्दगी नाम है गुलशन में खिले सुर्ख गुलाबों का
साथी खारजारों से निजात के लिये मौत जरूरी है।

दर्द, कुंठा, घुटन, भरे इस कटघरे से बाहर निकल
आला हजरातों से मुलाकात के लिये मौत जरूरी है।

ऐ परवरदीगार ! तेरी इस कायनात की जीनतों में
पाने उस जन्नत की सौगात के लिये मौत जरूरी है।

हमारी यह साँस ही तो वजह-मर्ज और दर्दे-रूह है
जाना ये तबीब कि वफ़ात के लिये मौत जरूरी है।


.................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


तबीब = इलाज
वफ़ात = मौत

{ १४७ } भोर सिटपिटा रही है





सच्चाईयाँ गम उठा रही है
अब झूठ कदम बढा रही है।

ज़िन्दगी कहते हैं हम जिसे
वो मरने को छटपटा रही है।

अमरबेलें भी मुरझाने लगीं
उफ़ आ भीषण छटा रही है।

रात को सपने संजोये नींद
पर भोर सिटपिटा रही है।

मंजिलें और दूर खिसकती
अब रहगुजर मिटा रही है।

भूख से तबाह हुई बेचैनियाँ
तिनका-तिनका जुटा रही है।


.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल