Tuesday, October 28, 2014

{ २९५ } तेरी याद आई है






होठों का बेवक्त हँसना
जुल्फ़ों का बार-बार बिखरना
ख्वाबों में डुबो कर मुझे
नींद का कोसों दूर चला जाना
खुश्बू की मंद-मंद बयार का चलना
अपनी ही हँसी का कानों में गूँजना
आँखों में तेरे नक्श का आना
जेहन में तेरे नाम का छा जाना
बतला देता है
कि
तेरी याद आई है।।


..................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, October 5, 2014

{ २९४ } बेगाना मंजर






आँखों के वो सपन चुराना
मंजर हुआ अब ये बेगाना।

नजरों में आ जाये मोहब्बत
चल निकलेगा गम बेगाना।

दिल के हाथों दर्द उठा कर
भटका फ़िरेगा वो दीवाना।

आपा-धापी, भाग-दौड मे
छूट गया प्रेम-अफ़साना।

जब पलट कर देखी दुनिया
दुख-दर्द का बिखरा खजाना।


---------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, October 4, 2014

{ २९३ } ये ज़िन्दगी की पहेली





वो कब का जा चुकी
पर,
उसकी जुदाई के पहले का
एक नर्म सा लम्हा
मेरी मुट्ठी में
ज़िन्दगी की पहेली बन कर
ठहर गया है।

आज भी मैं
ज़िन्दगी की पहेली बने
इस लम्हे को दुलरा रहा हूँ,
जिससे तमाम उम्र
इस लम्हे को ही जीता रहूँ,
इस उम्मीद के साथ
कि,
कभी तो सुलझेगी
ये ज़िन्दगी की पहेली।
कभी तो हमजल्सा होगी
ये ज़िन्दगी की पहेली।।

------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


हमजल्सा - मित्र, दोस्त

Wednesday, May 28, 2014

{ २९२ } अब नहीं सही जाती






बन्द कमरे में
अकेले बीतती यह रातें
अब नहीं सही जाती।

शर्म के नाखूनों से
खुरची हुई दीवारें
कभी हम जीते
कभी तुम हारे,
कभी तुम जीते
कभी हम हारे
जैसी
गुदगुदाती मनुहारों की यादे
उस पर
घनघोर गरजते बादल
और बरसातें
अब नहीं सही जाती।

सिरहाने रखे दीपक का
बार-बार बुझाना
बदन को छूते ही छुई-मुई सा
सिहर-सिहर जाना
अँधियारे कमरे को
सुवासित गँध से महकाना
अब नही सहा जाता।

बन्द पलकों पर
सुधियों के
खींचे हुए ये चित्र
अब अकेले नहीं सहे जाते।

................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Tuesday, May 20, 2014

{ २९१ } सुख का सागर है अन्तर में






क्या रक्खा इस काया नश्वर में
सुख का सागर है अन्तर में।।

बाहर जग की उष्मा, मरुथल का कोलाहल
बाहर पनपते हैं दँभ-द्वेष और छल-बल
मति-भ्रमित मानव जाने कहाँ भटका करता
बाह्य-रूप बदलता रहता पल में, प्रहर में।।१।।

क्या रक्खा इस काया नश्वर में
सुख का सागर है अन्तर में।।


तर्क हीन इस असत् सत्य में
नियति-नटी के विषम-नृत्य में
नाद-ताल-लय, गति विहीन हो गई
तट-भ्रान्ति समाहित लहर-लहर में।।२।।

क्या रक्खा इस काया नश्वर में
सुख का सागर है अन्तर में।।


संत्रासों के घन, अम्बर में घूम रहे
कुंठाओं के शीशमहल नभ को चूम रहे
बूढ़ी आशाएँ संशय के द्वार खड़ी
जीवन कैद हुआ जर्जर पिंजर में।।३।।

क्या रक्खा इस काया नश्वर में
सुख का सागर है अन्तर में।।


----------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, May 12, 2014

{ २९० } तुमसे ही हुआ जीस्त में उजियारा






दिल में नक्श तुम्हारा ही उतारा है
इश्क मे हमने तुमको ही पुकारा है।

तड़पा तेरे बिन दिल भी रोया किया
देखा है आँसुओं ने ये भी नजारा है।

मेरी खोई हुई हर खुशी मुझे मिल गई
जबसे मिला तेरे प्यार का सहारा है।

खुदा का वास्ता मुझे छोड़ के न जाना
तुमसे ही हुआ जीस्त में उजियारा है।

क्या पूछते हो कि क्या हाल हमारा है
जो हाल तुम्हारा है वो हाल हमारा है।



---------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, April 16, 2014

{ २८९ } मन मेरा उदास है






मन मेरा जाने क्यों
आज कुछ-कुछ उदास है।।

बीती सुधियों से बोझिल आँखों में
जब-तब आँसू भर आते हैं
पलकों को करके बन्द हम यूँ ही
करते खुद से ही खुद बातें हैं।

सूनी जँगल सी हैं आहें
जीवन में बढ़ गई प्यास है।
मन मेरा जाने क्यों
आज कुछ-कुछ उदास है।।१।।


जीवन, तुमसे जाने क्या-क्या
निज मन को उम्मीदे हैं
आहों ने अधूरी ही रच दी
चाहों की तस्वीरें है।

जीवन में दर्द मचलता
प्रीति-पीड़ा मे बसी हर श्वांस है।
मन मेरा जाने क्यों
आज कुछ-कुछ उदास है।।२।।


अद्भुत यह उद्वेग प्रीत के
टिके परस्पर नयन मीत के
प्रीति-ज्वार में सागर चंचल
उठती-गिरती लहरें अविचल।

टूटा स्वप्न प्रीति-पर्व का
छूटा प्रीति युगल-पाश है।
मन मेरा जाने क्यों
आज कुछ-कुछ उदास है।।३।।

............................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Tuesday, March 11, 2014

{ २८८ } याद तुम्हारी





अन्तर्मन के दर्पण में
कौंध-कौंध जाती है
याद तुम्हारी।

बिरहन कोयल की कूक सी
दर्द का तराना गाती है
याद तुम्हारी।

कोमल हृदयांगन में
कठोर काँटे सी धँसती जाती है
याद तुम्हारी।

सूनी-सूनी बगिया में
चिडिया सी चहचहाती है
याद तुम्हारी।

नीरव रात्रि में
अकेले दीप सी टिमटिमाती है
याद तुम्हारी।


--------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, March 2, 2014

{ २८७ } आओ धनुर्धर आओ !






आओ धनुर्धर आओ !

करोड़ो-जन
यहाँ गिन रहे हैं
समस्याओं के बियावान के
पेड़-पौधे-पत्ते।

करोड़ो-जन
यहाँ प्रतीक्षा कर रहे हैं
उस धनुर्धारी अर्जुन की
जो आये
और निराकरणरूपी चिड़िया की
आँख को लक्ष्य कर
शर-सँधान करे।

आओ धनुर्धर आओ ।


--------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, February 2, 2014

{ २८६ } शब्द





शब्द,
परमात्मा की श्रेष्ठ कृति है।

शब्द,
परमात्मा की अनुकृति है।

शब्द,
लिपि के वस्त्र पहन
कागज पर उभर जाते हैं।

शब्द,
नाद का श्रृँगार कर
जिह्वा से उच्चारित हो जाते हैं।

शब्द,
मष्तिष्क में
उमड़ते-घुमड़ते हैं
और रच डालते हैं
महाग्रंथ।

शब्द,
कभी हँसते है
कभी गाते हैं
कभी गुमसुम
उदास हो जाते है।

शब्द,
ज़ख्म भी है
मरहम भी है।

शब्द,
कभी दवा है
तो कभी दुआ हैं।

शब्द,
मधु की तरह मीठे है
तो कभी हलाहल से कड़वे हैं।

शब्द,
शीतल बयार हैं
महकता प्यार हैं।

शब्द,
कभी रोष हैं
कभी आक्रोष हैं।

शब्द,
हमको हँसाते-रुलाते है
कभी पुचकारते-दुलराते हैं।

शब्द नाद हैं
शब्द निनाद हैं
शब्द ब्रह्म हैं
शब्द पर्~ब्रह्म हैं।।


----------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


Saturday, February 1, 2014

{ २८५ } रहनुमा की तलाश





देश के हालात पर नहीं किसी की नजर है
बुलन्द मुल्क का महल हो रहा खन्डहर है।

बौरा गये हैं बागबान अपने इस चमन के
गुल को बिसरा रहे और खार की फ़िकर है।

बेगुनाहों की कराहों से घुटा जा रहा है दम
दहशतो से दरक रहा दिल किस कदर है।

हर मोड़ पर किस कदर छा चुका है धुआँ
दुख-दर्द उदासियों से भरी हुई रहगुजर है।

अब ऐसे रहनुमाओं की देश को तलाश है
ज़ज़्बातों को जिन्दा रखे जिसका जिगर है।


--------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, January 15, 2014

{ २८४ } दो आँसू





हर प्रातः
संतान का स्वप्न
उदर में सँजोये
मेरी बाँझ आँखे
गर्भवती होती है,
पर,
बाहर गूँजती हुई
लज्जित करने वाली
दानवी आवाजों से डर
मेरा क्लीव मन
दिन पूरा होने से पूर्व ही
गर्भ को निर्ममता से
मार देता है
और फ़िर
शेष बचते है
वेदना पूरित
मेरी आकुल आँखों से
टपकते हुए
दो आँसू।।

----------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २८३ } आज का राम राज्य





आओ !
राजघाट के कब्रिस्तान से
उठकर आओ _____

और देखो
इन खण्डहरों में
तमाम दुश्वारियों की
भट्ठी में भुनकर
चिथड़ों मे लिपटे
औरत और मर्द,
बूढ़े, जवान और बच्चे
मूक होकर निहार रहे हैं
आकाश की थाली में पड़े
दुर्गन्धयुक्त चाँदनी के साथ
चाँद सी जली रोटियाँ ______

शायद
राम नाम का सत्य अब यही बचा है
और शायद आज का
राम राज्य भी यही है।।

---------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल