Friday, September 30, 2011

{ ५२ } जीना आ गया







अब मुझे अपने बहते अश्कों को पीना आ गया,
सीने में सुलगती आग को दबाए जीना आ गया|

दिल के जख्मों का कोई हिसाब नही शुमार नही,
टीस का इजहार नही दर्द को छुपा जीना आ गया|

हर तरफ धुँध और गर्द, आसमान में काला साया
खौफ़जदा दिन औ' काली रातों में जीना आ गया|

अपनी मासूमियत को ज़िंदा दफ़न कर चुका हूँ मैं
सन्नाटे की दहशत में सहमे हुए से जीना आ गया|

चाँदनी रातों में तनहा फिरता मंजिल से भटक गया
पिछला छूटा, मुस्तकबिल क्या? पर जीना आ गया|

इस जिंदगी के साथ कुछ हादसे, साजिशे ऎसी हुईं
चिटके आईने में खुद को ढूँढते हुए जीना आ गया|

किसको कहें कि कौन गुनहगार है मेरी वीरानी का
कहने के इस्तेहकाक ताक में सजा, जीना आ गया|

अपना-अपना नसीब, मेरे मुकद्दर का फैसला है यही
ख़्वाब जला, ताश के पत्तों के महल में रहना आ गया|


....................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


मुस्तकबिल=भविष्य
इस्तेहकाक=रिश्ते


Friday, September 23, 2011

{ ५१ } तमन्ना





कुछ तो हो अब ऐसा कि जीने की चाह निकले
कहीं से तो बेपनाह मोहब्बत की राह निकले|

इतना बड़ी है कायनात, इतना बड़ा है ज़माना
शिकस्ता-दिलों का कोई तो खैरख्वाह निकले|

आते जो करीब फिर बदल जाती निगाह उनकी
अब कोई तो हो ऐसा जो मोहब्बतख्वाह निकले|

वो बुरा कहता है मुझे, इसका कोई गम नहीं हमे
मनाता हूँ उसकी बददुआ सिर्फ अफवाह निकले|

मजनू को तो अपनी मंजिले-मकसूद मिल ही गई
उसकी बला से लैलाओं के जनाजे तबाह निकले|

गर्दो-गुबार कितना छाया हुआ है इस जिन्दगी में
साथ है तमाम हमराह कोई तो दिलख्वाह निकले।

हैं ये दर्दो-गम के किस्से ये आवारगी के आलम
चले ठंडी हवा के झोंके और दिल से आह निकले|



..................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



Monday, September 19, 2011

{ ५०} मै साथ हूँ







चाहत के हर मुकाम पर मैं साथ हूँ

हो गैरों की ही भीड पर मै साथ हूँ।


पलकों पर तो सजाया है तुमने मुझे

आँखों मे रोशनी की तरह मै साथ हूँ।


उल्फ़त में कुर्बान हो जाए मेरी दुनिया

पर हर अंजामे-मोहब्बत मे मै साथ हूँ।


मंजिल हम अपनी एक दिन पा जायेंगे

हमसफ़र राह पर चला चल, मैं साथ हूँ।


किस्मत हो मेहरबान या कि दगा दे जाये

पर हर तूफ़ाँ में साहिल तक, मै साथ हूँ।



............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल



Wednesday, September 14, 2011

{ ४९ } प्यार अब और किसी का है




पहले मुझसे था प्यार अब और किसी का है
मुझको आज भी इन्तजार तेरी रोशनी का है।

गुलों के बदले रहगुजर में ये खार बिछा दिये
क्यों माने कि ये काम किसी अजनबी का है।

हाल अपना क्या बताऊँ, खुद देख लें आप ही
मेरे चेहरे पर लिखा हाल मेरी बेबसी का है।

क्या लोग थे और अब क्या से क्या हो गये
कैसे यकीं करें अन नही यकीं किसी का है।

बेवफ़ाई और हुस्न ने इश्क को दी है मात
ये किस्सा भी बेजोबानों की जुबानी का है।

सभी का ही तो हक है बराबर खुदाई पर
उसे देख के लगता है कि खुदा उसी का है।


.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Saturday, September 10, 2011

{ ४८ } मुकद्दर







किसी को ताज मिलता है तो किसी को मौत मिलती है

देखना है प्यार में मेरा मुकद्दर मुझको क्या दिलाती है|


अब भी उस हसीन जिन्दगी को आइना दे सकता हूँ मैं

पर वो तो मुझ पर सिर्फ तोहमत कि बरसात कराती है|


होठों में गज़ल, सलोने सपने आँखों में उसकी भर दूँ मै

पर न जाने क्यों वो इन चांदनी रातों को अँधेरी बनाती है|


सनम के संगेदिल में सुर्ख फूल मैं एक खिलाना चाहता हूँ

करिश्मा इश्क का इधर है, वो मोहब्बत उसे कहाँ लुभाती है|


मेरा दिल जो खँडहर सा उजडा पड़ा है आ कर संवार दो उसे

जानता हूँ जब भी तुम आती हो, जन्नत खुद से शरमाती है|




................................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल