Wednesday, January 23, 2013

{ २३३ } ढल गयी प्यार की गुनगुनी धूप






जल रही है आग सी दिन-रात आँखों में
चुभता दर्दे-जीस्त का आघात आँखों में।

अजब सा मौन छा गया शुष्क अधरों पर
सिसक रही अनकही सी बात आँखों में।

किस्मत में लिखे हिज्र के दिन पर्वतों से
तडपते ही गुजर जाती हर रात आँखों में।

क्यों ढल गयी प्यार की वो गुनगुनी धूप
बार-बार उठते यही सवालात आँखों में।

अब गम की राहों में गुजरेगी ज़िन्दगी
सजा लीं ख्वाबों की सौगात आँखों में।


............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

Friday, January 11, 2013

{ २३२ } मिलन की प्यास





कल जहाँ खिला था आँखों मे प्यार का मधुमास
आज वहीं पर हम लिख रहे हैं हिज्र का इतिहास।

शबे-रोज़ बेचैन किये रहती हैं विरह की आँधियाँ
न जाने कितने जन्मों की है ये मिलन की प्यास।

हवायें जब भी दस्तक देती हैं दिल के दरवाजे पे
चमक उठती आँखें होता उनके आने का आभास।

हर तसव्वुर में बस उसी का नक्श नजर आता है
दिल की कसक जगाती दिलेबेकरारी का एहसास।

दहलीज़ की हर इक आहट चौंका जाती मुझको
जाने और कितना बाकी है ज़िन्दगी मे वनवास।


------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल



हिज्र = जुदाई
शबे-रोज़ = दिन-रात
तसव्वुर = स्वप्न
दिलेबेकरारी = व्यथित हृदय

Wednesday, January 9, 2013

{ २३१ } पत्थर दिल आदमी





किसी के दर्द में जो शामिल नहीं
वो पत्थर है आदमी का दिल नहीं।

अपने हमराह ही जब साथ छोड दें
सफ़ीना पाता कभी साहिल नहीं।

फ़ूलों के जख्म भी भर नहीं पाते
साथ मेरे जब कोई आमिल नहीं।

गुमनामी का नहीं कोई ठिकाना
मेरे लिये जब कोई महफ़िल नहीं।

कई खेल-तमाशे हैं राहे-जीस्त में
हम उन्हे देखने के काबिल नहीं।

................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

सफ़ीना = नाव
साहिल = किनारा
आमिल = हकदार

Tuesday, January 8, 2013

{ २३० } मीठा बोल तो सही





गुलों की तरह लबों को खोल तो सही
खुश्बू की जुबाँ में कुछ बोल तो सही।

दस्तक देती रोशनी तेरी दहलीज़ पर
ये बन्द खिडकियाँ जरा खोल तो सही।

उम्र भर साथ किसी का मुमकिन नहीं
दो पल मेरे सँग-सँग तू डोल तो सही।

दौलत, शोहरत सब खुदा की देन है
मगरूर क्यों जरा मीठा बोल तो सही।

गौर से देख जरा धूप-छाँव है दुनिया
छोटी सी ज़िंदगी आँखें खोल तो सही।

शबे-तार का भी कहीं तो होगा सबेरा
रब की रहमत पे तू किलोल तो सही।

.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


शबे-तार = नितांत अँधेरी रात


Monday, January 7, 2013

{ २२९ } क्या बताऊँ





ज़िन्दगी में कैसे हो गई गमों से मुलाकात, क्या बताऊँ।
मैं गुनहगार हरगिज़ नहीं दिल के जज्बात, क्या बताऊँ।

तरसता हूँ कि अब न आते खत समन्दर के उस पार से
गमों की मुझको मिली जाने कैसी सौगात, क्या बताऊँ।

पाले हुए हो तुम चाँदनी की कुछ इसकदर खुशफ़हमियाँ
कैसे कटी हमारी ओस में भीगी हुई ये रात, क्या बताऊँ।

कुछ पाने की क्या खुशी और क्या हो कुछ खोने का गम
वो मेरा हाले-दिल भी नही करते दरयाफ़्त, क्या बताऊँ।

मेरे जज्बातों की इस दुनिया ने कीमत ही नहीं समझी
हर लमहा हम पर तारी है सिर्फ़ ज़ुल्मात, क्या बताऊँ।


............................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


तारी = छाई हुई


Sunday, January 6, 2013

{ २२८ } कुछ मत पूँछिये





घात पर घात है सिर्फ़ घात है, कुछ मत पूँछिये।
बडी डरावनी सियाह रात है, कुछ मत पूँछिये।

जख्म और दर्द भी देते हैं, मरहम भी लगाते हैं
यही तो उनकी खुसूसियात है, कुछ मत पूँछिये।

जाने क्यों बदल गया मिजाज मेरे हमदम का
शायद ये राज की ही बात है, कुछ मत पूँछिये।

तीखी चुभन, घुटन की हवा, कँपकँपी आ रही
उफ़्फ़, कैसी ये मुलाकात है, कुछ मत पूँछिये।

मेरे ज़हर पीने का न करो कतई भी अफ़सोस
हमको यही मिली सौगात है, कुछ मत पूँछिये।

बख्तर पहन लिया है दिल की चोटों के डर से
आगे डरावनी नाशिरात है, कुछ मत पूँछिये।

मौत से मुझे डर नहीं, पर ज़िन्दगी डराती है
ये इंसान की करामात है, कुछ मत पूँछिये।

------------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल


खुसूसियात = खूबी
बख्तर = कवच
नाशिरात = आँधियाँ


{ २२७ } छोड दूँ, कैसे ?





गुलों की ताजी कली वाला मँजर छोड दूँ, कैसे?
खुश्बुओं सँग खिलखिलाती सहर छोड दूँ, कैसे?

अभी ख्वाबों के महल में कुछ तलाश रहा हूँ मैं
ख्वाबों की खुश्बू से महका बिस्तर छोड दूँ, कैसे?

सब हमसे मिलते बहुत प्यार और मोहब्बत से
ये शरफ़, मोहब्बत, कद्रो-मर्तबा छोड दूँ, कैसे?

दर पे आती शबो-रोज गुलों को लिये रुत नई
तब भी अपना दिल यूँ ही बँजर छोड दूँ, कैसे?

जो लिये रहे पलकों पे मेरे अश्कों को हरदम
ऐसी आँखों को भला बेगानावर छोड दूँ, कैसे?

.................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

सहर = सुबह
शरफ़ = प्रतिष्ठा
कद्रो-मर्तबा = मान-सम्मान
शबो-रोज़ = नित्य प्रति
बेगानावर = बेगाना

Thursday, January 3, 2013

{ २२६ } हम आग की दरिया में जल गये





उजले चेहरे के
रँग और तेवर
बदल गये।

झुके हुए काँधों पर
साँझ के साये
ढल गये।

वो खुश-लम्हे जिन्दगी के
मीरूसी मे मिले थे जो
नर्म हथेलियों,
बन्द मुठ्ठियों से
फ़िसल गये।

रफ़्ता-रफ़्ता
हम आग की दरिया में
जल गये।।

..................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



मीरूसी = विरासत

Tuesday, January 1, 2013

{ २२५ } नारी ! तुमको मेरा नमस्कार





नारी ! तुमको मेरा नमस्कार।।

तुमने सदियों से दुख सहकर
तुमने पीडा, कष्टों में रहकर
अपने अरमानों का वध कर
प्रत्येक क्षुधा को तृप्त कर
हैं किये सदा ही परोपकार।
नारी ! तुमको मेरा नमस्कार।।१।।

तुम मानुष को जीवन देती हो
तुम जीवन को पोषित करती हो
इस सृष्टि का आधार तुम ही हो
भूतल की रचनाकार तुम ही हो
तुमने जन-जन को दिया प्यार।
नारी ! तुमको मेरा नमस्कार।।२।।

संतुष्टि भाव बना तुम्हारा संबल
परोपकार का चाव लिये प्रतिपल
तुम धारा सम बहती हो कल-कल
नारी तुम हो निच्छल, निर्मल जल
नहीं भूली तुम अपने संस्कार।
नारी ! तुमको मेरा नमस्कार।।३।।


......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल