Thursday, October 18, 2012

{ २०९ } ख्वाहिशों को देखता था कभी ख्वाब मे






देखता रहता था जिन ख्वाहिशों को कभी ख्वाब मे
लिखे जा रहा हूँ उन्हे अब हकीकत की किताब में।

आजाद था तो बाग का मौसम भी कुछ और ही था
खुश्बू भी तेज थी और रँग भी गहरा था गुलाब में।

तेज हवाये दिल की धडकने को और भी बढाती थीं
दिख जाता था उसका नूर हवा में उडते हिजाब में।

अब न ख्वाबों का भरोसा है न यादों पर रही पकड
ये ज़िन्दगी भी कब गुजर पाई है अपने हिसाब में।

नदी का किनारा, घरौंदों को लौटते परिंदों का शोर
अब देखते है रोज आफ़्ताब को डूबते हुए आब में।


----------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, October 17, 2012

{ २०८ } ताकि नीरव मे डूबी रहूँ........






मैनें सुनी है सन्नाटों में गूँज
अपने दिल की गहराइयों में
जहाँ से कोई गुजर कर भी
न गुजरा कोई...................

अपना चेहरा आइने में देख
घबरा कर गुल कर देती हूँ
चिराग............................

कभी-कभी एक आहट
थपकी देती है मुझे
चौकन्ना करती है मुझे......

दो आँखें
खुली हुई
मेरे ही आइने से
मुझे ताकती है
मुझे घूरती हैं
शायद मुझे पहचानने की
कोशिश करती हैं..............

और मैं
अँधकार युक्त सन्नाटे में
खुद को खुद में
समेट कर
छुप जाती हूँ
अपने हृदय की
गहराइयों में..................

ताकि
कोई मुझे जान न ले
कोई मुझे पहचान न ले......

और मैं
अपने नीरव मे
खोई रहूँ...................।
डूबी रहूँ....................।।


---------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, October 7, 2012

{ २०७ } काँटों का बिछौना






पाया है जिसको उसको खोना है
कहती है दुनिया ऐसा ही होना है।

उड लो कितना भी आसमानों में
किसी दिन तो जमींदोज़ होना है।

आजमा लो चाहे कितना भी तुम
ज़िंदगी वक्त का एक खिलौना है।

चार दिन अभी हँस कर काट लो
आगे सिर्फ़ आँसुओं को ही ढोना है।

सितारों के ख्वाबों में रह लो, पर
ज़िन्दगी काँटों का ही बिछौना है।


---------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल



Thursday, October 4, 2012

{ २०६ } आओ-आओ महाकाल !!!






जर्जर माँ भारती की धरती,
रक्त सा उबलता गगन,
उफ़ना रहा समुद्र जल।

नहीं हो रहा कहीं भी
नव-निर्माण का आभास
माँ भारती की कोख में
नही हो रहा कहीं भी
सृजन-शीलता का निवास।

मानव ’वादों’ के सीखचों में
अधमरा बन्दी पडा है
तडप रहा, घिसट रहा
आखिरी साँसें ले रहा है।

जल-थल-नभ में छाया घोर अँधकार
कण-कण में छहराया दूषित विकार
दिगदिगन्त में हहराया हाहाकार।

दूषित हो गया वातावरण
बन्द है सारी वातायन
अविराम मात्र अतिक्रमण।

अब कोई यहाँ उभर कर आये
शिव के पावन त्रिशूल सम
भारत की धरती के दलदल पर
खिले लक्ष्मी-प्रिय फ़ूल सम।

गगन चुम्बी पर्वतों को तलुओं तले दबा
सागर की गहराइयों को कन्धे पर उठा
गगन के विस्तार को बाहों में समेटे
उमड पडे मूर्छित भारत को जगाने
भारत के जीवन की ज्योति को जलाने।

रख रूप विकराल.............
आओ-आओ महाकाल !!!
आओ-आओ महाकाल !!!


------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


वातायन = खिडकी