Thursday, March 29, 2012

{ १२३ } आदमी






पानी का ही एक बुलबुला है आदमी
गमों का एक सिलसिला है आदमी।

मोती से आँसुओं की सौगात मिली
दाह-दुख से हुआ कुचला है आदमी।

खुदाई दुनिया को मसान बना डाला
इन करतूतों का सिलसिला है आदमी।

अब ये आलम है अपने ही दामन को
खुद ही तार-तार कर चला है आदमी।

रोशनियाँ भी कब कहाँ भायी हैं उसको
अँधेरों से जब-जब निकला है आदमी।

बहके पाँव जब भी जीवन की रहगुजर में
गिर पडा, जब-जब भी सँभला है आदमी।


.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १२२ } अन्धी जनता






मैं,
उस नगर का बाशिन्दा हूँ,
जिस नगर में हर ऋतु के
काले-काले डरावने से साये
जनता के जीवन का
रस चूस रहे हैं,
और
मूर्ख भोली-भाली जनता
कुछ भी न समझते हुए
कुछ भी न जानते हुए
उन काले-काले
डरावने सायों के सामने
झुक जाती है,
लुट जाती है,
और
मन मसोस कर
अपना सब कुछ
सिसक-सिसक कर दे देती है।।


............................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, March 27, 2012

{ १२१ } गंगा





गंगा !
तुम निर्मल,
तुम शीतल,
तुम कलुषहर,
तुम अविचल बहो,
तुम अविरल बहो,
तुम कल-कल बहो,
तुम बहो.... बहो....... अनंत बहो.....।


तुम अमृत जल बन आई भू पर,
तप्त धरा की तृष्णा हर कर,
वसुधा, तरु-तरुवर की तृष्णा हरती,
पतझड हर, उपवन में बासन्ती भरती,
प्रकृति की सहचरणी तुम हो,
तुम बहो.... बहो....... अनंत बहो.....।


ऊँचे गिरि शिखरों से झरकर,
सूखे मैदानो को सिंचित कर,
तुम कल-कल निनाद करती,
तुम हर-हर निनाद कर बहती,
तुम शीतल जल की अमृत धारा हो,
तुम बहो.... बहो....... अनंत बहो.....।


तुमको रोका मानव ने,
दुःख ही भोगा मानव ने,
तुम हर प्राणी का तारण करती,
तुम पाप नाश-निवारण करती,
तुम स्वर्ग मार्ग की वैतरणी हो,
तुम बहो.... बहो....... अनंत बहो.....।



............................ गोपाल कृष्ण शुक्ल



Sunday, March 25, 2012

{ १२० } जिन्दगी... जहमत या जन्नत





रह गया "मैं" मर गई मोहब्बत
सोच कर खुद से हो गई नफ़रत।

इश्क की राहों पर इस जमाने से
हिज्र केदर्द-काँटे पा गई किस्मत।

रात भर सुख-सपन सँजोये नींद ने
सहर के हिस्से में आ गई जिल्लत।

चाँदनी अब आग बरसाने लगी है
गुलशन की कहीं खो गई जन्नत।

गमें-जीस्त भी मौत से पनाह माँगे
ये ज़िन्दगी भी अब हो गई जहमत।

..................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ ११९ } अजीब हालात





अजीब हालातों से लोग गुजर रहे हैं आज
दिल की आवाजों से लोग डर रहे हैं आज।

किससे अपना हाल कहूँ, सब ही बेहाल हैं
लोग साँसे गिन-गिन कर मर रहे हैं आज।

सूरज ही मिटाता, अँधियारा इस जमीं का
उस सूरज को लोग काला कर रहे हैं आज।

आइनों में अजनबी ही अजनबी दिख रहे हैं
अपने ही अक्स से किनारा कर रहे हैं आज।

सो चुकी है आँखों में ही चाहतों की उलझने
अन्धे दौर में ही लोग सफ़र कर रहे हैं आज।


.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, March 21, 2012

{ ११८ } हमारी बात






हमसे पूछिये कुछ हमारी बात
क्यों करते सिर्फ़ घात-प्रतिघात।

आँखों पर पट्टियाँ होठ सिले हुए
यह कैसी हुई हमारी मुलाकात।

खाक हो गये हैं धधकने से पहले
उठती ऊँगलियाँ हो रहे सवालात।

उजाड कर घर घरौंदे की पेशकश
कैसे सह लूँ आपकी यह वारदात।

न ही है दरो-दीवार, न ही है छत
उफ़्फ़ ये कैसी दी है मुझे हवालात।


............................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Saturday, March 17, 2012

{ ११७ } क्रान्ति ज्वाला






जागो ओ ! भारत के तरुण कर्णधार
जागो जागो भारत के तरुण कर्णधार।।

अंतर-मन की ज्वालाओं को ठंडी कर
कब से ज्योतित प्रतिमाओं को रौंद रहे
मिथ्या की कारा में कर कैद सत्य-जीवन
विपदाओं की वक्र-दृष्टि को बस कोस रहे।।

कब तक ये परंपरायें शोषण की पनपने दोगे
कब तक यूँ ही मानवता को कटने-मरने दोगे
कंकाल समय का डरा रहा सम्मुख आ कर
नजरों से कब तक उसको यूँ ही बचने दोगे।।

हो चुके अब बहुत मनमानी-आन्तकी मेले-जलसे
अब सही वक्त है डाल कफ़न उनको दफ़नाने का
यदि शान्ति चाहते हो तुम लाना अपने भारत में
यही समय है सोयी क्रान्ति ज्वाला को धधकाने का।।

जागो ओ ! भारत के तरुण कर्णधार
जागो जागो भारत के तरुण कर्णधार।।

.................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



Friday, March 16, 2012

{ ११६ } इश्क की दुनिया





खाक नींद आयेगी, जब यादे-दिलबर में दीदाए-बेदार होती हैं
आस्माँ में कभी चाँद-तारे कभी जुगुनुओं की कतार होती है।

लाजिम है किसी पर खुशियाँ लुटाना, किसी पर जान देना
यूँ उदास दिल औ’ तनहाई में कहाँ रंगीनिये-बहार होती है।

हम तो डूबे हैं इश्क में, मुश्किल है वापसी इश्क की गली से
इश्क में सब्र करना भी मुश्किल, इश्क तो नौ-बहार होती है।

दिलबर के हुस्न के ही दिलकश नजारे इस दिल पर छाए हैं
तसव्वुर से पुर ये तलावती रातें बडी दिल-अजार होती हैं।

दिन में ख्वाबों को तलाशते फ़िरते हैं हम गलियों-गलियों
ढलती हुई बेजान शामें मयखाने में ही पुर-खुमार होती है।

जानता हूँ मैं कि आसाँ नही होता दिलबर से दोस्ती करना
आशनाई में तो अपनी तमाम उम्र ही निसारे-यार होती है।

आबाद और खुशगवार करे जो किसी के इश्क की दुनिया
ऐसी गजल-सुखन-अशआर की आशिक को दरकार होती है।


............................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


दीदाए-बेदार = खुली आँखें, जागना
रंगीनिये-बहार = बसन्त की शोभा
नौ-बहार = बसन्त ऋतु
तसव्वुर = कल्पना
पुर = भरा
तलावती = लम्बी
दिल-आजार = कष्टप्रद
पुर-खुमार = नशे में चूर
निसारे-यार = प्रेमी/प्रेमिका पर निछावर


Wednesday, March 14, 2012

{ ११५ } खुद ही न टूट जाऊँ मैं





इन सूखे पत्तों को, पतझड में कहाँ तक बचाऊँ मैं
डर है तेज हवा के झोंके से खुद ही न टूट जाऊँ मैं।

सिलसिला काफ़ी पुराना है जीस्त में घने अँधेरों का
टिमटिमाते चिरागों से कब तक रोशनी फ़ैलाऊँ मैं।

सहमी-सहमी सी काँटों से उलझी दिल की ख्वाहिशें
कैसे पलकों के घरौंदों में अपने सपनो को सजाऊँ मैं।

इस कायनात में कुछ करीबी और अजीज भी हैं मेरे
मेरी उनको है फ़िक्र नही, पर कैसे उनको भुलाऊँ मैं।

तमाम रंजिशों के बाद गले मिलूँ? दिल धडकता है
कैसे हो मुमकिन, फ़िर से उनको अपना बनाऊँ मैं।

गहरी धुँध की एक दीवार खिंची है हमारे हर तरफ़
डर है कहीं खुद ही खुद से अजनबी न हो जाऊँ मैं।

काली आँधियों के ही रास्ते में बस्तियाँ हैं यादों की
काफ़िला उम्मीदों का अब किस जगह ठहराऊँ मैं।


.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, March 12, 2012

{ ११४ } पानी की बूँद





यह पानी की बूँद है।
यह पानी की छोटी सी बूँद है।।

जब-जब नदिया बूँद-बूँद को तरसे
तब-तब बादल गरज-गरज बरसे
बूँदें झरती-गिरती-मिलती नदिया से
नदिया बहती-बहती मिलती सागर से।

कितना अदभुत आलिंगन है
बूँदों, नदिया और सागर का,
कितना मोहक अगाध-मिलन है
बूँदों, नदिया और सागर का।

बूँद से बूँद मिल-मिल कर
नदिया-सागर का पानी होता
पानी से पानी मिल पानी होता।

पानी से पानी में गाँठ नही पडती
पानी की बूँद पानी से जा जुडती।

यह पानी की बूँद है।
यह पानी की छोटी सी बूँद है।।


................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, March 11, 2012

{ ११३ } इंसान की तलाश





इन राहों में तलाश रहा हूँ
इंसान को.................
पर इंसान शायद यहाँ नहीं
इंसान तो
श्मशान या कब्रगाह में होंगे,
क्योंकि इंसान तो मर चुका है।

इन राहों पर सिर्फ़
गुनाह और हैवान
ही जिन्दा बचे हैं।

इनका ही कोलाहल
इस पूरे ब्रह्माण्ड को
प्रदूषित कर रहा है
और इंसान
हर दर पर
हर कदम पर
सिर्फ़ मर रहा है.
इंसान मर रहा है।।


...................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, March 10, 2012

{ ११२ } दूर होते किनारे






एक बहती नदिया
एक डगमगाती कश्ती
टूटती पतवारें
मासूम सी सिहरी हुई
जीने की जद्दो-जहद
पर असमंजस से भरी हुई
क्यों कि....
दूर होते किनारे
नजदीक आता हुआ समन्दर
जहाँ सब कुछ विलीन हो जाना है....
सब कुछ विलीन.................!!!!!


................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ १११ } नारी





नारी.....

राह हारी तू न हारी
थक गये पथ-धूल के
उड रहे रज-कण घनेरे
अब तक जो न मिट सके।

न थक सका है अभी तक
लक्ष्य-ध्येय का ध्रुव-तारा
तू प्रकृति है, ले चुकी है
जन्म से गति का सहारा।।


................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Friday, March 9, 2012

{ ११० } तनहाइयों में हम






पहुँच सके कभी नहीं प्यार की ऊँचाइयों में हम
महफ़िल से उजडकर आ गये तनहाइयों में हम।

देखा है जब से आपको, मुझे खुद की खबर नही
शामिल हैं न जाने कब से आपके शैदाइयों में हम।

हम कभी उनके इश्क से न बाज आ पायेंगे यारों
गिने जायें दीवानों या कि दिलफ़िगारियों में हम।

मगर इश्क की शोहरत से जल्द ही निजात मिले
जिससे डूब जायें तेरे बहर-ए-खुशनुमाइयों में हम।

मैं सोचता रहता हूँ पर याद कुछ भी आता ही नही
किस कदर डूबे हैं तेरे ख्वाब की परछाइयों में हम।

सच तो यह है यारों कि अगर चोट न खाता ये दिल
न सुख होता, न डूबते इश्क की गहराइयों मे हम।

उफ़ नाजनीन की महफ़िल से खाली हाथ उठूँ कैसे
जाओ यारों रह लेगे इन तमाम तनहाइयों में हम।


...................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


शैदाई = प्रेमी
दिलफ़िगार = जख्मी दिल
बहर-ए-खुशनुमा = हुस्न का समुद्र


Wednesday, March 7, 2012

{ १०९ } मुझे वापस कर दे





वो रात और वो दिन मेरे अपने मुझे वापस कर दे
वो बीते हुए पल, वो मेरे सपने, मुझे वापस कर दे।

लफ़्ज़ मर चुके हैं सारे, हर सदा आसमाँ में खो गई
दर्द में डूबे हुए लम्हे मेरे अपने, मुझे वापस कर दे।

खुशरंग चेहरों की सजी हुई महफ़िल अब यहाँ नही
मेरी साँसें, मेरी सुखदाई महकें मुझे वापस कर दे।

अब यहाँ खंजर ही खंजर और आँसुओं के संगरेज़े है
मेरी कमनसीबी के हँसते सितारे मुझे वापस कर दे।

आग तो बुझ चुकी, सब तरफ़ धुआँ-धुआँ ही रह गया
मेरे सुखन, मेरी दर्द मे डूबी गज़लें, मुझे वापस कर दे।


............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल



Sunday, March 4, 2012

{ १०८ } किससे दिल की बात करूँ






रुसवाई और तनहाई साथी हैं अब किसका मैं साथ करूँ
किसको दिले जख्म दिखाऊं, किससे दिल की बात करूँ।

धन-दौलत की इबादत को ही, उठते हैं जहाँ हाथ हमेशा
किसको अपना हमराह कहूँ, किससे दिल की बात कहूँ।

ज़िन्दगी के सफ़र में अपनी साँसे ही हैं अपनी हमसफ़र
अब और किसका रहा सहारा, और किसके साथ चलूँ।

रात तो काली ही है हरदम अब दिन भी काला-काला है
मेरी किस्मत ही ऐसी है, मैं जलूँ और सारी रात जलूँ।

कौन है दिलबर मेरा जिसके लिये हो मेरा दिल बेकरार
सब ही हैं यहाँ बेगाने जैसे, किसके दिल में जा वास करूँ।


.............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Friday, March 2, 2012

{ १०७ } यूँ ही कट जाने दो






कभी हँसते हुए, कभी रोते हुए, यूँ ही कट जाने दो
ज़िन्दगी जीना काम है बस यूँ ही निपट जाने दो।

जिनसे गुलशन रूठा, जो हुए समन्दर उदासी के
मेरी इन सारी खुशियों को उनमे ही बँट जाने दो।

ज़ौर-ओ-सितम, तल्खियाँ, रुसवाइयाँ, मजबूरियाँ
दर्दे - दिल दुनिया के मेरे सीने में सिमट जाने दो।

रूह भी कब खुश रही है इस ज़िस्म-ए-फ़ानी से
ज़िस्म, पोशाक पुरानी है फ़टती है फ़ट जाने दो।

जल्द ही करीब आयें मौत से मिलने की घडीयाँ
ये जीस्त घटती जाती है इसे यूँ ही घट जाने दो।

कब रह पाया है कोई भी इस रैन बसेरे में हमेशा
ये अपना घर नही मुझे अपने घर पलट जाने दो।


................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल



ज़ौर-ओ-सितम = अत्याचार और जुल्म
तल्खी = कटुता
जिस्म-ए-फ़ानी = नश्वर शरीर

Thursday, March 1, 2012

{ १०६ } मोहब्बत का मंजर





तू जब मेरी दुनिया में बनकर मेरा मुकद्दर आयेगा
सच्ची मोहब्बत का मंजर दुनिया को नजर आयेगा।

अपने लबों पर तुम न लाओ चाहे मेरा नाम बार-बार
मेरा तुमसे है कोई रिश्ता, तेरे चेहरे पर उभर आयेगा।

ख्वाबों से रिश्ता और नींद से बोझिल हो जायेंगी आँखे
मुझसे इश्क करके ही तुम्हे जीने का हुनर आ पायेगा।

जरा मेरी आँखों के आइने में खुद को सजाओ - संवारो
तेरे जिस्म-दिलो-जान में सुरूर ही सुरूर उभर आयेगा।

आसमानों में लिखी तहरीर कुछ और भी धुँधली होगी
मेरी तस्वीर रहेगी आँखों में, और कुछ न नज़र आयेगा।

खूबसूरत और महकता सा एक गुलशन सजाओ दिल में
हर सुहानी शाम को खुद-ब-खुद ये भँवरा उधर आयेगा।


.................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल