कुछ पल के उथले चिंतन से
नहीं जनमती है कविता,
हो कवि के अंतर्मन में द्वंद
तभी पनपती है कविता।।
दो नयनों से बहे अश्रु-धार
तभी चमकती है कविता,
दो अधरों को मिले मुस्कान
तभी ठुमकती है कविता।।
सूने बिस्तर पर हो सिलवट तो
बहुत सिसकती है कविता,
दो बाहों के आलिंगन में गुँथकर
कुछ-कुछ सिमटती है कविता।।
पूजा के श्रद्धा सुमनों में
बहुत महकती है कविता,
क्रोधित मन में अग्नि-ज्वाल बन
बहुत धधकती है कविता।।
वात्सल्य भरी, ममतामयी सी
छल-छल छलकती है कविता,
आवेश-ईर्ष्या-द्वेष-क्रोध सँग
खूब उफनती है कविता।।
मेरे मन से होकर उत्पन्न
मेरे भावों से निखार सँवर
तेरे कोमल मन तक भी
यही पहुँचती है कविता।।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
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