अम्मा,
आज तुम्हारी
बहुत याद आ रही है।
यूँ तनहा छोड़कर मुझे
कहाँ चली गई हो तुम?
हर पल तेरी यादों में
आँखे नम ही रहती है,
नहीं कर पा रहा समझौता
इस वीरान हुई जिन्दगी से,
आदत रही है हमारी
हमेशा तुम्हारे दुलार की,
उन दुलार भरे
हाथों का स्पर्श
महसूस करता हूँ
आज भी स्वप्निल नींद मे,
पर, अक्सर ही
नींद के लिए रात से जूझता
ढूँढ़ता तुम्हारा चेहरा
आसमान में चमकते
इन चाँद सितारों में,
रात के नीरव सन्नाटे से डर कर
तुम्हें ही खोजता शून्य में,
पर तुम,
दूर, शायद बहुत दूर
चली गई हो
फिर न वापस आने के लिए।
अम्मा,
बहुत याद आ रही हो तुम।
अम्मा,
ओ अम्मा।।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
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