Friday, February 4, 2011

{ ७ } काश ! कहीं तुम मेरे होते ! ! !






काश ! कहीं तुम मेरे होते।


भावों को मिल जाते अम्बर,
सतरंगी हो जाते सब मंजर,
स्वप्निल सभी सबेरे होते,
काश ! कहीं तुम मेरे होते ।


शब्दों का तब छोड़ तमाशा,
हम रचते नयनों की भाषा,
ग़म भी नहीं घनेरे होते,
काश ! कहीं तुम मेरे होते ।


रूप जहाँ खुल कर मुस्काता,
रस में भीगी गन्ध लुटाता,
ऐसी जगह बसेरे होते,
काश ! कहीं तुम मेरे होते ।



..................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



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