Friday, February 4, 2011

{ ८ } यही गुनता रहा मैं रात भर.....






सपने सारे भस्मित हो गये,
सपने ही बुनता रहा मै रात भर,
आग ! ये जाने कैसी लगी है,
यही गुनता रहा मैं रात भर ।

आशियाना अब अपना कहाँ रहा,
उडा कर ले गईं तेज हवायें,
न जाने ये कैसी आँधियाँ हैं,
यही गुनता रहा मैं रात भर ।

रेत के टीलों पे देखो,
हो रही ओलों की बारिश,
अब कहाँ मै सर छुपाऊँ,
यही गुनता रहा मैं रात भर ।

जमीं औ’ आसमाँ जहाँ पर हैं मिले,
स्वप्न में देखा था उसे कभी,
कौन होगा साथ मेरे उस मंजिल के लिये,
यही गुनता रहा मैं रात भर ।

चित्र सारे चित्रपटल के धुल चुके,
क्यॊ हुआ था ऐसा घनागम,
चिंतित चितेरा अब क्या करेगा,
यही गुनता रहा मैं रात भर ।

आम के पेडों मे देखो अब,
उगने लगी हैं निमकौरियाँ,
बोया था जो अब उसे ही भोग रहे,
यही गुनता रहा मैं रात भर ।

आदमी से आदमी का क्या रह गया संबन्ध,
अब आदमी से आदमी क्यों डरने लगा है,
दोष इसमें है पशुवत आचरण का,
यही गुनता रहा मैं रात भर ।

कुछ आवाजें कुछ हल्ला-गुल्ला,
यही सब सुनता रहा मै रात भर,
मानुष क्या था क्या हो गया,
यही गुनता रहा मैं रात भर ।

..................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

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