Saturday, February 26, 2011

{ २३ } हुस्न.....








कितना दिलकश है तेरा ये हुस्न-ए-शबाबी

बडी मादक हैं तेरे ये चश्म-ए-आफ़्ताबी

हसीन हैं तेरे ये होठ नीलोफ़रे-माहताबी

नाजुक गुल से है तेरे ये दस्त-ए-गुलाबी

रुख पर उतर आया हो जैसे रंग-ए-शहाबी

तुम हुस्न-ए-मुजस्सम हो, तुम हो हुस्न-ए-सादगी

तुम हुस्न-ए-फ़िरंगी नही, तुम हो जमाले-खुदाबन्दी

भौंचक है हर शख्स देखकर तेरा ये आबो-ताबी

तेरे हुस्न में ऐसा उलझा हुआ हूँ मै

कि अब तो जमाना भी समझे है मुझको शराबी ।


............................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


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