Saturday, April 21, 2012

{ १३६ } बलमा, अब तू आ रे.....





आई बहार, हरसिंगार खिले हिये
उपवन का मैं मधुर मधुसार लिये
नव-यौवना सा सुन्दर श्रृंगार किये
मादक रस का प्याला सरसार पिये
भागी चली आई देखो बलमा दुआरे।
आ रे आ रे, मोरे बलमा, अब तू आ रे ।।

आँख में आँज कर लाज का काजल
मुखर नूपरों की पाँव में बंधी पायल
अन्तर्हासी आनन पर ओढ आँचल
सुरमयी कँठ और गीतमयी बादल
ओ बलमा इन पलों को क्यों व्यर्थ गुजारे।
आ रे आ रे, मोरे बलमा, अब तू आ रे ।।

करवटें बदलते रहे हम रात कितनी बार
थरथराती दिये की लौ सी, रही राह निहार
ताकती इधर-उधर सुनती जब कोई पुकार
देखूँ कभी राह तो कभी रही चाँद को निहार
घिर आई चाँदनी रात, जागते चाँद सितारे।
आ रे आ रे, मोरे बलमा, अब तू आ रे ।।

प्रियतम जाने कब तुम आओगे
कब तक मुझको यूँ तरसाओगे
कब नयनों से नयन मिलाओगे
कब मीठी-मीठी बात सुनाओगे
कहीं बीत न जायें ये मनमोहक बहारें।
आ रे आ रे, मोरे बलमा, अब तू आ रे ।।


......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

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