Wednesday, April 25, 2012

{ १४२ } गूँगे बहरों की बस्ती




गूँगे बहरों से भरी इस बस्ती में
इन मेले-जलसों का क्या काम।
काँच के घर में रहने वाले, कब
लिखते पत्थर पर अपना नाम।।

वो दिलों का फ़ैसला कर रहे हैं
पास न जिनके धडकते दिल हैं
प्यासे होठ लिये फ़िर रहे हम
मरुथलों में नही वर्षा का मुकाम।
गूँगे बहरों से भरी इस बस्ती में
इन मेले-जलसों का क्या काम।।

ख्वाब पल भर को ही सजा पर
आँख पल-पल में भीग रही है
अश्कों से हम दस्तक देते रहे
न लाया वो होठों पे मेरा नाम।
गूँगे बहरों से भरी इस बस्ती मे
इन मेले-जलसों का क्या काम।।

हम केवल मरुस्थली टीलों की
चर्चित मृगतृष्णाओं में जीते
महल वासियों ने भेजा नहीं
कभी गुलशन में आने का पैगाम।
गूँगे बहरों की इस बस्ती में
इन मेले-जलसों का क्या काम।।

कोई नहीं रहा अब यहाँ अपना
सब ही अब कहीं गुम हो गये
तीर चुक गये, न हौसला-ताकत
भुगत रहे हम अपना अंजाम।
गूँगे बहरों से भरी इस बस्ती मे
इन मेले-जलसों का क्या काम।।


............................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


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