Sunday, March 25, 2012

{ १२० } जिन्दगी... जहमत या जन्नत





रह गया "मैं" मर गई मोहब्बत
सोच कर खुद से हो गई नफ़रत।

इश्क की राहों पर इस जमाने से
हिज्र केदर्द-काँटे पा गई किस्मत।

रात भर सुख-सपन सँजोये नींद ने
सहर के हिस्से में आ गई जिल्लत।

चाँदनी अब आग बरसाने लगी है
गुलशन की कहीं खो गई जन्नत।

गमें-जीस्त भी मौत से पनाह माँगे
ये ज़िन्दगी भी अब हो गई जहमत।

..................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


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