Tuesday, March 27, 2012

{ १२१ } गंगा





गंगा !
तुम निर्मल,
तुम शीतल,
तुम कलुषहर,
तुम अविचल बहो,
तुम अविरल बहो,
तुम कल-कल बहो,
तुम बहो.... बहो....... अनंत बहो.....।


तुम अमृत जल बन आई भू पर,
तप्त धरा की तृष्णा हर कर,
वसुधा, तरु-तरुवर की तृष्णा हरती,
पतझड हर, उपवन में बासन्ती भरती,
प्रकृति की सहचरणी तुम हो,
तुम बहो.... बहो....... अनंत बहो.....।


ऊँचे गिरि शिखरों से झरकर,
सूखे मैदानो को सिंचित कर,
तुम कल-कल निनाद करती,
तुम हर-हर निनाद कर बहती,
तुम शीतल जल की अमृत धारा हो,
तुम बहो.... बहो....... अनंत बहो.....।


तुमको रोका मानव ने,
दुःख ही भोगा मानव ने,
तुम हर प्राणी का तारण करती,
तुम पाप नाश-निवारण करती,
तुम स्वर्ग मार्ग की वैतरणी हो,
तुम बहो.... बहो....... अनंत बहो.....।



............................ गोपाल कृष्ण शुक्ल



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