पीते रहो ! पीते रहो !! ऐ रिन्द पीते रहो !!!
अभी न रखो जाम
जितना पिलाये साकी, पीते रहो।
पीते रहो ! पीते रहो !! ऐ रिन्द पीते रहो !!!
मये-जाम से मन की लहरें गगनचुम्बी हो रही है
अँधेरी, सूनसान राहें रोशनी से जगमग हो रही हैं
ऐ रिन्द ! मत झुकना बाधायें स्वयं झुक जायेंगी
सुधा-मय पेय बाकी, साँझ से भोर तक पीते रहो।
पीते रहो ! पीते रहो !! ऐ रिन्द पीते रहो !!!
मत खोजो किसी का साथ सब मिथ्या है
अन्त तक साथ नहीं रहे कोई तो क्या है
दर्द दूसरों का कहीं कभी कोई आँकता है
मैखाने के मीत देखो, साकी से मौन न रहो।
पीते रहो ! पीते रहो !! ऐ रिन्द पीते रहो !!!
पीते रहो ! पीते रहो !! ऐ रिन्द पीते रहो !!!
अभी न रखो जाम
जितना पिलाये साकी, पीते रहो।
पीते रहो ! पीते रहो !! ऐ रिन्द पीते रहो !!!
.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल
बहुत दमदार लेखन है आपका.. हर रचना एकदम झुमा देती है...चल दारू पीते हैं... चीयर्स... जय हो।
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