Saturday, December 22, 2012

{ २१९ } दिन ढलते दिल डूबे





किस अक्स को आइना तरसता है हमारा
दिन ढलते ही दिल डूबने लगता है हमारा।

कब समाँ दिखेगा ज़ख्मों के भर जाने का
बुरा वक्त जाने क्यों न गुजरता है हमारा।

अधूरी ख्वाहिशों का सिलसिला रह गया है
मँजिल से मुसल्सल फ़ासला रहा है हमारा।

शायद मैं ही सबब बना अपनी शिकस्त का
एहसासे-मसर्रत दर पे नहीं रुकता है हमारा।

हमसे उन सुहानी शामों का चर्चा न कीजिये
उन यादों से ही दिल डूबने लगता है हमारा।


-------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

एहसासे-मसर्रत = सुख

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