Thursday, April 23, 2015

{ ३०९ } हर तीर के हम निशाने बने रहे





हर तीर के हम निशाने बने रहे
नाराजगियों के बहाने बने रहे।

रोज ही चुभता टुकड़ा शीशे का
दर्द सीने के वही पुराने बने रहे।

सिर-आँखों में जब तक रखा था
मोहब्बतों के ही जमाने बने रहे।

मुश्किल से ही अब मालूम हुआ
ठौर मेरा नहीं बे-ठिकाने बने रहे।

भेद-राग गाते हैं वो अपनेपन से
सुनकर भी हम अनजाने बने रहे।

.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

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