Saturday, April 11, 2015

{ ३०५ } हम अपने साये से भी डरने लगे





हम अब अपने साये से भी डरने लगे
जब उनके भी चढ़े मुखौटे उतरने लगे।

पलकों को बन्द कर बैठता हूँ जब भी
साजिशों के घने अन्धेरे उभरने लगे।

फ़ूल गुलशन में हमारे हजारों थे मगर
मेरे चमन में खार ही खार सँवरने लगे।

जब कभी भी परवाज़ को उठाई है नज़र
फ़ैले हुए पँख वो हमारे ही कतरने लगे।

थम गई खिलखिलाहट टूट गई खुशियाँ
बे-दिली - बे-कसी मे दिन गुजरने लगे।

....................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

बे-दिली = उदासी
बे-कसी = दुःख

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