Wednesday, February 6, 2013

{ २३४ } बेगुनाही की सजा






दूर-दूर तक नजर आता क्या है
सिर्फ़ अश्कों का बहता दरिया है।

लुट गईं बहारें, छा गया पतझड
उदास चमन, गुमसुम फ़िज़ा है।

ओझल है सहर की नजर से सहर
मँजिल बहुत दूर बुझ रहा दिया है।

दिल पर जख्म हुए गहरे - गहरे
ज़िन्दगी मे ये भी हुआ हादसा है।

ज़िन्दगी की हैं ये ही सच्चाइयाँ
बे-गुनाहों को ही मिली सजा है।


_______________ गोपाल कृष्ण शुक्ल


सहर = सबेरा


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