Tuesday, April 26, 2011

{ ३२ } पीने के सबब - २








भटकता हूँ घने वन मे, सदा जब देता नही कोई, तो पी लेता हूँ,
तपिश सहता, दामन की हवा जब देता नही कोई, तो पी लेता हूँ ।
थोडा सा जी लेता हूँ ।।


कितनी दुश्वार है यहाँ दो जून की रोटी जरा उस मजदूर से पूछो,
फ़ुटपाथ पर ओढे आसमान जब वो बेसुध सोता है, तो पी लेता हूँ ।
थोडा सा जी लेता हूँ ।।


बेटी के पीले हो जायें हाथ, भले ही बिक जाये खेत का टुकडा,
रोए गरीब किसान, ढोए एक और नया पैबन्द, तो पी लेता हूँ ।
थोडा सा जी लेता हूँ ।।


बेटा संग बहू के मस्त हो घूमता, फ़ेंक रहा है पकवानो की जूठन,
बाप कराहे कुटिया मे भूख से तडपे, देख समय का फ़ेर, पी लेता हूँ ।
थोडा सा जी लेता हूँ ।।


ज़िन्दगी भी ज़िन्दगी से ऊब कर माँगे सिर्फ़ मौत की दुआ रब से,
होती हैं साजिशे ऐसी जब-जब ज़िन्दगी के साथ, तो पी लेता हूँ ।
थोडा सा जी लेता हूँ ।।



..................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


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