Friday, April 1, 2011

{ २८ } विरह-व्यथा






उसके नयनों की भाषा

जानी पहचानी थी

पर न जाने क्यो

अब मेरे लिये अबूझ हुई ।



उसके साँसों की मधुर गन्ध

थी भीनी-भीनी मिठास लिये

पर न जाने क्यों

अब वह मुझसे रूठ गयी ।



उसके पुष्प-पाँखुरी जैसे होठ

थे मीठे बोलों वाले

पर न जाने क्यो

अब वह मुझसे अबोल हुए ।



उसके अन्तर्हास की दन्तावलियाँ

थी मेरे अन्तस की शमता

पर न जाने क्यों

अब वह मेरे लिये निरुध्द हुई ।



उसके काले मेघों जैसे केशों की वेणी

थी मेरी गंगा-यमुना

पर न जाने क्यो

अब वह मेरे लिये पंकिल हुईं ।



उसके पाँवों के पायल की रुनझुन

था मेरा बसन्त गीत

पर न जाने क्यों

अब वह मेरे लिये बिरहा हुई ।



पाई सजा विरह की

जान न पाया अपना दोष

मिलेगा कभी तो तुम्हारा साथ

अब तो निरन्तर बस यही आस ॥


....................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


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