Wednesday, April 13, 2011

{ ३० } तो चलूँ..........






इस कैद से रिहाई का परवाना मिल जाये, तो चलूँ,

इन सांसों को आखिरी ठिकाना मिल जाये, तो चलूँ ।


ज़िन्दगी से हुई कुछ ऐसी आशनाई कि मदहोश हूँ,

पहले जरा मै कुछ होश में तो आ जाऊं, तो चलूँ ।


ज़िन्दगी की हमसफ़र है सिर्फ़ खामोंशियाँ ही मेरी,

कुछ तो सुना दूँ इन आँसुंओं की दास्तां, तो चलूँ ।


साथ चल रहे तमाम लोग, सब की अपनी मंजिले,

तनहा, सफ़र मे, एक शीरो-शकर बना लूं, तो चलूँ ।


औरों के ख्वाब हकीकत मे बदलते ज़िन्दगी बीत गई,

वक्त अब खुद के लिये निकालूँ और जी लूँ, तो चलूँ ।


ख्वाबों को बुनता रहा और ख्वाबों को ही जीता रहा,

आखिरी वक्त अब कुछ तो सबाब बना लूँ, तो चलूँ ।


अब सफ़र खत्म हो चला, शमा भी अब बीमार हुई,

अपनी ताजा गजल लिखूँ और गुनगुना लूँ तो चलूँ ।



................................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


1- शीरो-शकर=अभिन्न मित्र

2- सबाब=पुण्य



No comments:

Post a Comment