Thursday, October 17, 2013

{ २७९ } उदासी





इस मरुथली जीवन के
कण-कण में बसी है
एक हठीली उदासी।

जाने कहाँ-कहाँ से
बेहूदे खयाल
जेहन में आते हैं
और
गौरय्या की चंचल फ़ुदक
बालक की मनभावन किलक
चाँदनी की चम-चम चमक
बन जाते हैं कुछ ही क्षणॊं में
केंचुल उतारते हुए साँप,

नवयौवना के कँगन की मधुर धुन
बन जाती है कुछ ही क्षणों में
सर्प की डसती-फ़ुँफ़कारती गूँज।

जीवन के
इस तपते रेगिस्तान में
कभी
जमीं पर धुआँ सी
छा जाती उदासी
तो कभी
नीले अम्बर को
घेर लेती कालिमा भरी उदासी।

यही नहीं
क्षितिज से उतर
हर साँझ
पेड़ों पर आ बसती है उदासी,

और फ़िर
मौत से पहले घर
और मौत के बाद
श्मशान में छा जाती है उदासी।

मरुथली जीवन के
कण-कण में
बसी है उदासी।
बसी है उदासी।।


------------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल


2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना मुझे बहुत अच्छी लगी .........
    शनिवार 19/10/2013 को
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
    में आपकी प्रतीक्षा करूँगी.... आइएगा न....
    धन्यवाद!

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  2. उदासी का हठीला होना.....कोई चाह कर भी खुश कैसे रहे जब उदासी हठ कर ले...ये भाव पूरी कविता पर हावी है...

    श्मशान में मौत से उत्सव होना और उसके बाद उदासी छा जाना सृजन का विरोधाभास जरूर है लेकिन नकारात्मक सकारात्मकता ने कविता में क्रांतिकारी प्रभाव उत्पन्न किया है ...

    बेहद प्रभावी ...वाह

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