Monday, October 14, 2013

{ २७८ } शाश्वत-जाल





मैं वह मनुष्य हूँ
जो कहलाता है
विधाता का सर्वश्रेष्ठ निर्माण
पर,
संसार से हूँ अब तक अग्यात
और कहलाता हूँ
अल्पग्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रमाण।

नहीं जानता कि,
फ़ूल हूँ मैं
किसी बहार का
या कि,
मूल हूँ मैं
समय की धार का।

यह भी नहीं जानता कि,
कहाँ से आया हूँ
कहाँ हमें जाना है
भटकता इस पहर से उस पहर तक
टकराता इस लहर से उस लहर तक।

बस यही जानता हूँ कि,
हम किसी के हाथ की कठपुतली है
जो हमें नचाता है,
अखिल ब्रह्माण्ड में
मन-माफ़िक घुमाता है।

हम पुतले,
ड़ूबे हैं तिमिर के ताल में
जकड़े हुए है
विधाता के शाश्वत-जाल में।।


.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

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