Wednesday, February 1, 2012

{ ७९ } दस्तक





दिलो-जाँ में सिर्फ़ खुश्बुएँ ही खुश्बुएँ रह गईं हैं
तू तो चली गई मेरे पास तेरी आहटें रह गईं हैं।

आज ये कैसा दौर आ गया है इस मयखाने में
खाली हैं ज़ाम - पैमाने सूखी कराबें रह गईं हैं।

महजबीं से सिर्फ़ वफ़ाए इश्क ही तो चाही थी
होठ सिल लिये है, खंजर सी अब्रुएँ रह गईं हैं।

ऐसे भी लम्हे आए जो दिल में जख्म बन गये
चीख कर निकलती हमारी ख्वाहिशें रह गईं हैं।

खो चुका तुम्हे पर तेरा इन्तज़ार न होगा खत्म
तेरे दिल के दरवाजे पर मेरी दस्तकें रह गईं हैं।


......................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


कराब=शराब की सुराही
अब्रुएँ-भौं



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