Tuesday, November 22, 2011

{ ७० } अपनी हस्ती = काँटे उलझन






ज़िन्दगी में अगर गम न हों तो ज़िन्दगी नही
आँसुओं से आँखें नम न हों तो ज़िन्दगी नहीं।

ज़िन्दगी की इस रहगुजर में दोनो रंग जरूरी हैं
पर कोशिशों का मरहम न हो तो ज़िन्दगी नही।

काँटे और उलझन अपनी हस्ती और किस्मत हैं
गर्दिश को बदलने का दम न हो तो ज़िन्दगी नहीं।

रखता रहा हूँ कहकहों में छुपाकर अपनी उदासियाँ
गर साथ हमदम का भरम न हो तो ज़िन्दगी नही।

मानता हूँ दुनिया है फ़ानी चार दिन की ज़िन्दगानी
ज़ीस्त की गज़ल सा ज़रम न हो तो ज़िन्दगी नही।


..................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


ज़रम=इलाज


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