Friday, March 24, 2017

{३३८} डगर जीवन की





कैसे छोड़ूँ जीवन की आपा-धापी, कैसे कुछ आराम करूँ
झाँकूँ अतीत के झरोखों से, थकन मिटाऊँ विश्राम करूँ।

खूब लड़ चुके हम झूठ-फ़रेब से और माथे की लकीरों से
कब तक रहूँ ऐसे जग में, हम यूँ अनजान फ़कीरों से।

छूट गये खेल लुका छिपी के, सुधियाँ हुईं बिसराई सी
कब तक शर्म का पर्दा ओढ़े, साँसें सिमटें सकुचाई सी।

खोये लहलहाते बाग-बगीचे खोई महकती अमराई भी
जाने कब ये बचपन बीता, अब बीत चली तरुणाई भी।

अब कुछ उजले से, कुछ मटियाले, बीते पलों के साए हैं
फ़िर उधड़ी है बखिया यादों की बरबस ही आँसू आए हैं।

............................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

1 comment:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "पेन्सिल,रबर और ज़िन्दगी “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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