Sunday, June 2, 2013

{ २६५ } सारे स्वप्न अभी अधुरे है





कितने स्वप्न संजोये हमने पर सारे स्वप्न अभी अधूरे हैं।

नदिया सदियों तक बहते-बहते
जा कर सागर में मिल जाती हैं
कलियाँ खिल कर फ़ूल बनती
पर एक दिन मुरझा जाती हैं
वैसे ही सावन आता पल भर को और पतझड अभी भी पूरे हैं।
कितने स्वप्न संजोये हमने पर सारे स्वप्न अभी अधूरे है।।१।।

आज अभावों के इस दौर मे
इंसानियत हर जगह मर रही
और इस अभाव के प्रभाव से
हैवानियत खूब पसर रही
जाहिर में जो दिखते हैं हँसते, वो भी आँसुओं से न अदूरे हैं।
कितने स्वप्न संजोये हमने पर सारे स्वप्न अभी अधूरे हैं।।२।।

हम भू पर क्या लेकर आये
और क्या लेकर हम जायेंगें
मिले खुशियाँ या गम हजार
सब छोड यहाँ हम जायेंगें
बन्धन बँधे अधिकार यहाँ पर, चिपके सीने से पूरे-पूरे है।
कितने स्वप्न संजोये हमने पर सारे स्वप्न अभी अधूरे हैं।।३।।

अग्यानी ही कहते फ़िरते
ये तेरा है और ये मेरा है
ग्यानी ही जाना करते
ये सब माया का फ़ेरा है
अहम पोषित, रागरोपित सत्य मुख-मंडल पर अपूरे हैं।
कितने स्वप्न संजोये हमने पर सारे स्वप्न अभी अधूरे हैं।।४।।


---------------------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


अदूरे = जो दूर न हो
अपूरे = भरपूर


1 comment:

  1. आप बहुत खूब लिखते हैं शुक्ला जी, एक सार्थक रचना रचित करने के लिए बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें।

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