Thursday, June 7, 2012

{ १८१ } ज़िन्दगी, खडी सोंच रही है





दिन की शान है
सूरज ढलने तक।

इन्सान की शान है
ज़िन्दगी के चलने तक।

हर ठौर पर साँस लेती है ज़िन्दगी,
हर दौर से गुजरती है ज़िन्दगी।

ज़िन्दगी,
अपने हर पडाव पर
खडी हो सोंच रही है--

जाना था सफ़र पर मुझे
क्यों मैं रास्ते भर बेहोश रही ?
क्यों न भ्रम की हद को पार कर
सच की सरहद छू सकी ?

ज़िन्दगी, खडी सोंच रही है।
ज़िन्दगी, खडी सोंच रही है।।


............................ गोपाल कृष्ण शुक्ल

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