Sunday, December 11, 2011

{ ७३ } गमों का पर्वत ले लिया हमने.....






ज़िन्दगी में जाने कितना आँसुओं को पिया हमने
ज़िन्दगी को इकरामे-ज़िन्दगी सा कब जिया हमने।

कानों को झूठ सुनने की आदत हो चुकी है इसकदर
सच न कह दूँ इसलिये जुबाँ को ही सी लिया हमने।

न मंजिल है, न मंजिल की कोई दूर तक है उम्मीद
बस मंजिलों से ही इंतिहाई फ़ासला ही किया हमने।

हम अपनी मंजिलों से इस तरह बेखबर न हुए होते
खुद के साथ भी तो केवल खुदफ़रेब ही किया हमने।

ये किस अजीयत देह सी दुनिया में आ गये है हम
अपने हिस्से मे कितने इल्जामों को ले लिया हमने।

दरब हैं तो क्या दोस्त-दुश्मन सभी ने मुझको परखा
कसौटी पर इम्तिहान से कब किनारा किया हमने।

जहाँ में हर कोई अपना-अपना मुकद्दर ले के आया है
सभी लब मुस्कुरायें, गमों का पर्वत ले लिया हमने।

न जमीं का होश रहा, न आस्माँ की है मुझको खबर
गमों में ही गुम होकर सारी उम्र को बिता दिया हमने।

अब क्या बचा है जिसके सहारे जी सकें हम ज़िन्दगी
ख्वाब-तसव्वुरों को दुनियासाजी में बिखरा दिया हमने।

जीने की तमाम कोशिशों का आखिरी नतीजा यही हुआ
मरते हुए कुछ और मर गया, यही महसूस किया हमने।


................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


इकरामे-ज़िन्दगी=भगवान की दी ज़िन्दगी

इंतिहाई=लम्बा

खुद फ़रेब=खुद को धोखे मे रखना, आत्मवंचक

अजीयत देह=कष्टदायी

दरब=खरा सोना

दुनियासाजी=बनावटी बातें


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