Friday, September 30, 2011

{ ५२ } जीना आ गया







अब मुझे अपने बहते अश्कों को पीना आ गया,
सीने में सुलगती आग को दबाए जीना आ गया|

दिल के जख्मों का कोई हिसाब नही शुमार नही,
टीस का इजहार नही दर्द को छुपा जीना आ गया|

हर तरफ धुँध और गर्द, आसमान में काला साया
खौफ़जदा दिन औ' काली रातों में जीना आ गया|

अपनी मासूमियत को ज़िंदा दफ़न कर चुका हूँ मैं
सन्नाटे की दहशत में सहमे हुए से जीना आ गया|

चाँदनी रातों में तनहा फिरता मंजिल से भटक गया
पिछला छूटा, मुस्तकबिल क्या? पर जीना आ गया|

इस जिंदगी के साथ कुछ हादसे, साजिशे ऎसी हुईं
चिटके आईने में खुद को ढूँढते हुए जीना आ गया|

किसको कहें कि कौन गुनहगार है मेरी वीरानी का
कहने के इस्तेहकाक ताक में सजा, जीना आ गया|

अपना-अपना नसीब, मेरे मुकद्दर का फैसला है यही
ख़्वाब जला, ताश के पत्तों के महल में रहना आ गया|


....................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


मुस्तकबिल=भविष्य
इस्तेहकाक=रिश्ते


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