Monday, July 11, 2011

{ ४५ } दुर्दशा





गाँधी तुम तो कहते थे

कि भारत में फ़िर से

राम-राज्य स्थापित करेंगे..?


क्या यही राम-राज्य है....?


गाँधी कहाँ है तुम्हारी लाठी...?


शायद,

उसी को टेक कर ही

चल रही है बिगडी दिमाग वाली

भ्रष्टाचारी, निरंकुश, रक्त-पिपासु,

संवेदनहीन, डगमाती सत्ता ।


गाँधी कहाँ है तुम्हारी चप्पल...?


शायद,

सत्ताधीशों के

कठोर हाथों द्वारा

अब गरीबों की चाँद गंजी

करने के काम आ रही है ।


गाँधी कहाँ है तुम्हारी घडी.....?


शायद वो भी,

विशिष्टता को खोये हुए

भारत देश की नब्ज की तरह

कहीं पर बन्द पडी हुई है ।


गाँधी कहाँ है तुम्हारे तीन बन्दर....?


हाँ ! सिर्फ़ वो ही,

आज भी भारत को धरातल मे

ढकेलने के कार्य मे सलग्न है,

सिर्फ़ वो ही,

भारत की जनता को अक्षम

बनाने के लिये आज भी

निरन्तन अपना उपदेश दे रहे है---


" देखो मत ! सुनो मत ! बोलो मत ! "


वाह गाँधी, तुम तो चले गये

पर प्रतिबिंबों के द्वारा

भारत को रसातल मे

पहुंचाने से नही चूके ।।


................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल



(महाकवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक रचना की कुछ पंक्तियॊ से प्रभावित हो कर यह रचना लिखी है)

3 comments:

  1. बात मे दम है कविता है समाज के लिये जरुरी नये प्रतीको कॊ रचना की। रचना है शाश्वत मूल्यों के पुनर्लेखन का--
    प्रतिबिम्बो को भाष्यानुसारी बनाने की जुगत तथा निरन्तर प्रयत्न का आह्वान है गांधी को केन्द्र कर।

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  2. हे गांधी!
    कहाँ है आपकी लंगोटी?
    शायद वही,
    आपके छद्म अनुयाईयों द्वारा
    निचोड़ कर,
    चूस लिए जाने के बाद भी
    आशावादी रह कर,
    राम राज्य की बाट तकती
    भूखी नंगी
    हिंद की रियाया
    के तन ढांकने के काम आये!!

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