Wednesday, December 4, 2013

{ २८२ } पर अभी बाकी....






करुणा की गाथायें जीवन भर ओढ़ चुका
पर अभी बाकी अवसादों के ज्वार हैं।।

ऊँची बातों वाली यह थोथी-थोथी
खूब पढ़ी यह क्षण भँगुर जीवन-पोथी
साथी रहा न साथ, न पाथेय रहा
आहों ने अन्तर्दाहों को ही गहा।

सँबन्धो के मन-बन्धन सब तोड़ चुका
पर अभी बाकी अपवादों के खार हैं।।१।।

जीवन के दुख जैसे यौवना वैधव्य ढ़ोये
ग्यात किसको, कब कहाँ ये नयन रोये
बुझा चेहरा, गीली पलकें और सर्द आहें
देखकर पथरा गईं सुमनों की निगाहें।

चुभन के एहसासों वाले दिन जीवन में जोड़ चुका
पर अभी बाकी वादों-प्रतिवादों के आसार है।।२।।

क्या दिया, क्या लिया सब अनजान है
सम्मान की डोरी में पिरोया अपमान है
ढ़ह गया धीरज, दुखों ने किया अतिक्रमण
हुआ अतीत जब सुखों की नींद सोए थे नयन।

वीणा के तारों को छेड़-छेड़ तोड़ चुका
पर अभी बाकी खँजर के आघातों के वार हैं।।३।।

--------------------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, December 2, 2013

{ २८१ } तू मुसाफ़िर.....





तू मुसाफ़िर..................

किसकी याद सताये तुझे
किसके बिना तेरा पल न बीते
कौन सा दुख छुपाये तेरी आँखें

छोड जमाने के इन मंजरों को
तू है मुसाफ़िर
सिर्फ़ मुसाफ़िर

तू मुसाफ़िर.....................।।

......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, October 27, 2013

{ २८० } आदमी कितना बेहाल हुआ





दर्दे-जीस्त से दिल बहुत बेहाल हुआ
पर अपने गुनाहों का न मलाल हुआ।

यूँ हीं न हुई खारजारी जीस्ते-रहगुजर
हैवान बना इंसान जी का जँजाल हुआ।

रो रही तमन्ना सुबक रहा है मुसाफ़िर
ज़िंदगी से आदमी कितना बेहाल हुआ।

अनगिनत तोड़ॆ है दिल और दरपन भी
पर कभी न बेवफ़ाई का खयाल हुआ।

तन्हाई में बैठ रो-रोकर बिता रहे दिन
अपनी ही ज़िंदगी पर खड़ा सवाल हुआ।


................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, October 17, 2013

{ २७९ } उदासी





इस मरुथली जीवन के
कण-कण में बसी है
एक हठीली उदासी।

जाने कहाँ-कहाँ से
बेहूदे खयाल
जेहन में आते हैं
और
गौरय्या की चंचल फ़ुदक
बालक की मनभावन किलक
चाँदनी की चम-चम चमक
बन जाते हैं कुछ ही क्षणॊं में
केंचुल उतारते हुए साँप,

नवयौवना के कँगन की मधुर धुन
बन जाती है कुछ ही क्षणों में
सर्प की डसती-फ़ुँफ़कारती गूँज।

जीवन के
इस तपते रेगिस्तान में
कभी
जमीं पर धुआँ सी
छा जाती उदासी
तो कभी
नीले अम्बर को
घेर लेती कालिमा भरी उदासी।

यही नहीं
क्षितिज से उतर
हर साँझ
पेड़ों पर आ बसती है उदासी,

और फ़िर
मौत से पहले घर
और मौत के बाद
श्मशान में छा जाती है उदासी।

मरुथली जीवन के
कण-कण में
बसी है उदासी।
बसी है उदासी।।


------------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Monday, October 14, 2013

{ २७८ } शाश्वत-जाल





मैं वह मनुष्य हूँ
जो कहलाता है
विधाता का सर्वश्रेष्ठ निर्माण
पर,
संसार से हूँ अब तक अग्यात
और कहलाता हूँ
अल्पग्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रमाण।

नहीं जानता कि,
फ़ूल हूँ मैं
किसी बहार का
या कि,
मूल हूँ मैं
समय की धार का।

यह भी नहीं जानता कि,
कहाँ से आया हूँ
कहाँ हमें जाना है
भटकता इस पहर से उस पहर तक
टकराता इस लहर से उस लहर तक।

बस यही जानता हूँ कि,
हम किसी के हाथ की कठपुतली है
जो हमें नचाता है,
अखिल ब्रह्माण्ड में
मन-माफ़िक घुमाता है।

हम पुतले,
ड़ूबे हैं तिमिर के ताल में
जकड़े हुए है
विधाता के शाश्वत-जाल में।।


.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, October 12, 2013

{ २७७ } नया संसार बसाया जाये





गमगीन दिलों के ज़ख्मों को सहलाया जाये
आओ चमन से रूठी बहारों को मनाया जाये।

टकरा के कहीं चूर-चूर न हो जायें ये आइने
आओ कि इन पत्थरों को फ़ूल बनाया जाये।

सहर होने को है मँजिल भी है बहुत करीब
मदहोश मयकशों को झकझोर जगाया जाये।

घर-घर की छतों-दरीचों में बैठे हैं साँप छुपकर
आओ बेसहारों को इस जहर से बचाया जाये।

आस के फ़लक पे आजाद परिंदे सा उड़ने को
आओ इस जहाँ में नया संसार बसाया जाये।


--------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, September 22, 2013

{ २७६ } थोड़ा सुस्ता लो





ज़िन्दगी की राह में चलते-चलते
बहुत थक गयी लगती हो
थोड़ा सुस्ता लो
सपनों को फ़िर से सहेज लो
बिखरे अरमानों को समेट लो
बढ़ाओ फ़िर से अपने कदम
भर कर नई स्वाँस
क्योंकि___ साँझ घिरने में
अभी बहुत वक्त है बाकी।
अभी बहुत वक्त है बाकी।।

------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, August 14, 2013

{ २७५ } मोहब्बत का मुकद्दर





दिल को बहलाने की अच्छी तदबीर है
वो नहीं न सही, साथ उसकी तस्वीर है।

उसके चेहरे की चमक रहती कुछ ऐसी
जैसे चाँद की चाँदनी उसकी जागीर है।

उसका प्यार मेरे लिये है हसीन ख्वाब
इस ख्वाब में ही जीना मेरी तकदीर है।

शायद कम न होगा दिलों का फ़ासला
हाथों मे छपी नहीं मिलन की लकीर है।

मेरी मोहब्बत का है मुकद्दर कुछ ऐसा
इश्क ने उठा रखी हाथों में शमशीर है।


.............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, August 13, 2013

{ २७४ } मैं कौन हूँ?





मालूम न हुआ मुझको कि मैं कौन हूँ?
हवाओं के गूँजते शोर में खड़ा मौन हूँ।

उमड़ती भावनाये, काँपती कामनायें
मन की कहने में सँकोच खड़ा मौन हूँ।

टूटे हुए सपनों की किरचें हैं चुभ रही
बन्द कर ली नम आँखें खड़ा मौन हूँ।

अनगिन देवालय में भाल झुका आया
मिल पाया न कहीं चैन खड़ा मौन हूँ।

रोशनी की खोज में मुझे मिला अँधेरा
हो अचँभित उपलब्धि पे खड़ा मौन हूँ।


........................................................गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, August 11, 2013

{ २७३ } दर्द के तरन्नुम में हम गीत गुनगुनाते हैं





दर्द के तरन्नुम में हम गीत गुनगुनाते हैं।

हो चुके हैं अब वो खंडहर
सपनों में सँजोये थे जो घर
लेके उड़ता हूँ नये-नये पर
और ऊँचे हो जाते हैं अम्बर
चाँद-सितारों की बस्ती में हम ऐसे आते-जाते हैं।
दर्द के तरन्नुम में हम गीत गुनगुनाते है।।१।।

छा गया हरतरफ़ अँधेरा है
यादों ने आ कर फ़िर घेरा है
न सूरज अपना न सबेरा है
सबने अपना मुँह फ़ेरा है
तारे भी हमसे छुपकर अँधेरों में गुम हो जाते हैं।
दर्द के तरन्नुम में हम गीत गुनगुनाते है।।२।।

जग ने की जब क्रूर निगाही
हुई तब ही प्रीति की तबाही
अश्क टपके बन कर स्याही
गम हुआ अपना हमराही
भग्न हृदय वाले ऐसे ही गीत लिख पाते हैं।
दर्द के तरन्नुम में हम गीत गुनगुनाते हैं।।३।।

---------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, August 8, 2013

{ २७२ } दफ़न हुई आत्मा





परमात्मा ने मनुष्य को दिये हैं
कई रतन,
आत्मा, बुद्धि, तन और मन।

बुद्धि ने सिखलाया
जीवन जीने का ढ़ँग,
बुद्धि ने उपजाये
मनुष्य की विलासिता के साधन,
बुद्धि ने ही किये
अनेकानेक आविष्कार,
बुद्धि ने ही खोजा
दूसरों पर करना अधिकार,
मनुष्य को लगता है कि जैसे
उसने पा लिया है सारा संसार।

परिणाम में मनुष्य की
प्रखर हुई बुद्धि,
पुष्ट हुआ तन,
प्रमुदित हुआ मन,

परन्तु
खोज की इस होड़ में
मनुष्य की आत्मा
कहीं हो गयी दफ़न।
मनुष्य की आत्मा
कहीं हो गयी दफ़न।।

---------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, August 3, 2013

{ २७१ } मत इतना इतराओ साथी





आस के सूने आँगन में न वो पल आयेगा
वक्त हमें नर्म निवालों सा निगल जायेगा।

मत अपने ही ऊपर इतना इतराओ साथी
उगा हुआ यह चाँद सुबह तक ढ़ल जायेगा।

अहंकार तो बस एक बर्फ़ का टुकड़ा भर है
क्षण भर बाद जो स्वयं ही गल जायेगा।

माटी मोल न होगा चाँद वक्त के अर्श पर
बुझा हुआ दीप जब किसी का जल जायेगा।

खारजारों की भीड़ लगी हो हरतरफ़ भले ही
गुल की आँख की उदासी देख दहल जायेगा।

जानता हूँ खारे समन्दर सा बीता है समय
पर कल हमारा मीठे जल सा बदल जायेगा।


---------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, July 28, 2013

{ २७० } मेरे गीतों का सुर कहीं खो गया है






ज़िन्दगी को ज़िन्दगी सा बिताऊँ मैं कैसे
सुर बिना गीतों को गाऊँ मैं कैसे
क्या पाया हमने सब कुछ खो गया है॥
मेरे गीतों का सुर कहीं खो गया है।।१।।

कई गीत लिख चुका विपदाओं के घर मे
कई गीत गा चुका सुविधाओं के सफ़र में
ज़िन्दगी के सफ़र में कोई काँटे बो गया है।
मेरे गीतों का सुर कहीं खो गया है।।२।।

मन में बँधी उमँगे, असहाय जल गईं
अरमान-आरजू की लाशें निकल गईं
कोई तो आकर देखे, मुझे क्या हो गया है।
मेरे गीतों का सुर कहीं खो गया है।।३।।

टूटे वीणा के तार, गीत गाना कठिन है
है समन्दर आँख में, मुस्कुराना कठिन है
ज़िन्दगी दे गई गहरी टीस, दिल रो गया है।
मेरे गीतों का सुर कहीं खो गया है।।४।।


------------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, July 24, 2013

{ २६९ } क्योकि मैं प्रकृति हूँ






शून्य में आकाश मेरी दृश्यता है,
पृथ्वी में रज-कण मेरा अँश हैं,
जल का प्रवाह मेरी कोमलता है,
प्रकाश का आभास मेरी कठोरता है,
वायु में बहाव मेरा रूप है,
अग्नि की ऊष्णता मेरा स्वरूप है,
यग्य की भस्म मेरी दृढ़ता है,
वनस्पतियों की जड़ मेरा विस्तार है,
पर्वत की उत्तुँगता मेरा स्वभाव है,
भग्नता के अवशेष मेरा प्रमाण हैं,
दिशाओं में गंतव्य मेरी साधना है,
संगीत की ध्वनि मेरी लयता है,
समुद्र का कोलाहल मेरा कँठ है,
क्योंकि मैं प्रकृति हूँ।
........... मैं प्रकृति हूँ।।


....................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, June 27, 2013

{ २६८ } आज मन क्यों अनमना है





आज मन क्यों अनमना है।

उन्मत्त बादलों के सँग रहना
जल प्रवाह सा कल-कल बहना
डर न था कभी आँधियों से
दिशा-दिशा में उत्तुंग पेंग भरना
पर, यह अचानक हुआ क्या
हृदय का सँबल छिना है।
आज मन क्यों अनमना है।।१।।

छटपटा रही हैं भावनायें
नेह को तरसती कामनाये
अब न थमती दिख रहीं
गगन व्यापी गर्जनायें
हिल गई प्रेम की दीवार
कामना बन गई छलना है।
आज मन क्यों अनमना है।।२।।

भूल चुका गुनगुनाते पार जाना
सँग-सँग समय के मुस्कुराना
चहुँ ओर बस चर्चा यही है
क्यों हुआ निढाल ये दीवाना
साथ साहस है न तसल्ली
मीत हुआ मृग-कँचना है।
आज मन क्यों अनमना है।।३।।

---------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, June 20, 2013

{ २६७ } तुम मेरे परिमाण हो






मैं परिमाण तुम्हारा हूँ
तुम मेरे परिमाण हो।

खोजा जीवन भर सुख और शान्ति
पर्वत-घाटी-शिखर-उपवन कान्ति
तुम परिणाम मे मिले प्राण हो
तुम मेरे परिमाण हो।।१।।

शारदीय सँध्या के स्वप्निल वातायन में
साँसों की वीणा पर प्राणॊं के गायन में
तुम मधुर - मोहिनी तान हो
तुम मेरे परिमाण हो।।२।।

गगन तक बिखरी चाँदनी ही चाँदनी
प्रणय का ज्वार हो रहा उन्मादिनी
तुम चपल रजनी की मादक मुस्कान हो
तुम मेरे परिमाण हो।।३।।


......................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, June 10, 2013

{ २६६ } मजबूर आदमी





आदमी की रूह जितनी मजबूर है
अक्ल उसकी उतनी ही मगरूर है।

हर आदमी तिनका सा ही लगता
आदमी का कैसा दिमागी फ़ितूर है।

वक्त की मार से नाचता फ़िरता है
आदमी भी कितना हुआ मजबूर है।

फ़ाकाकशी लफ़्ज़ों से बयाँ न होती
भूख ने चेहरे को कर दिया बेनूर है।

उदासियाँ बन चुकी ज़ीस्त की साथी
फ़िर भी ज़िन्दगी पर सबको गुरूर है।

-------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, June 2, 2013

{ २६५ } सारे स्वप्न अभी अधुरे है





कितने स्वप्न संजोये हमने पर सारे स्वप्न अभी अधूरे हैं।

नदिया सदियों तक बहते-बहते
जा कर सागर में मिल जाती हैं
कलियाँ खिल कर फ़ूल बनती
पर एक दिन मुरझा जाती हैं
वैसे ही सावन आता पल भर को और पतझड अभी भी पूरे हैं।
कितने स्वप्न संजोये हमने पर सारे स्वप्न अभी अधूरे है।।१।।

आज अभावों के इस दौर मे
इंसानियत हर जगह मर रही
और इस अभाव के प्रभाव से
हैवानियत खूब पसर रही
जाहिर में जो दिखते हैं हँसते, वो भी आँसुओं से न अदूरे हैं।
कितने स्वप्न संजोये हमने पर सारे स्वप्न अभी अधूरे हैं।।२।।

हम भू पर क्या लेकर आये
और क्या लेकर हम जायेंगें
मिले खुशियाँ या गम हजार
सब छोड यहाँ हम जायेंगें
बन्धन बँधे अधिकार यहाँ पर, चिपके सीने से पूरे-पूरे है।
कितने स्वप्न संजोये हमने पर सारे स्वप्न अभी अधूरे हैं।।३।।

अग्यानी ही कहते फ़िरते
ये तेरा है और ये मेरा है
ग्यानी ही जाना करते
ये सब माया का फ़ेरा है
अहम पोषित, रागरोपित सत्य मुख-मंडल पर अपूरे हैं।
कितने स्वप्न संजोये हमने पर सारे स्वप्न अभी अधूरे हैं।।४।।


---------------------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


अदूरे = जो दूर न हो
अपूरे = भरपूर


{ २६४ } तुम्हे न भुला पायेंगें





तुमने हमें भुला दिया, हम न तुम्हे भुला पायेंगे
लगी है आग जो दिल में, कैसे उसे बुझा पायेंगे।

तेरी अदाओं और आँखों का नशा बसा जेहन में
तेरे इस सुरूर को हम हरगिज़ न छुडा पायेंगे।

तन्हा हो गई हैं अब मेरे दिल की तन्हाइयाँ भी
तुम्हारी इस जुदाई को हम कैसे मिटा पायेंगे।

हर शाम गुजर जाती है अब किसी मयखाने मे
बन गया हूँ रिन्द, पैमाना अब न हटा पायेंगें।

गुमनामियाँ ही अब मेरा ठिकाना बन चुकी है
दुनिया के लिये हम अजनबी कहला जायेंगें।


-------------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, May 27, 2013

{ २६३ } बातें





अब न अच्छी लगती प्यार की बातें
ये सब अब हैं लगती बेकार की बातें।

आसमाँ-चाँद-सितारे, गुलो-चमन से
बढ कर अब हो गईं तकरार की बातें।

जाने क्योंकर बदली सबकी फ़ितरत
रह गईं बाकी केवल बेजार की बातें।

दिल पर लगती चोट पर बन्द न होती
आपस की ये बेकार-तकरार की बातें।

बेरँग चेहरों से भरी हुई इस बस्ती मे
बाकी बच गईं केवल बीमार सी बातें।

------------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २६२ } इश्क का इजहार






हुस्न से इश्क का इजहार कर दिया
खुद को हुस्न का बीमार कर दिया।

हुस्न की मदभरी नज़र के जाम ने
बाहवास को मय-खुमार कर दिया।

छम से आके दिल के सूने आँगन में
हुस्न ने इश्क का श्रृँगार कर दिया।

शहनाई के स्वर, मधुमासी गीतों ने
पतझर को मौसमे-बहार कर दिया।

रहगुज़र पर खिल गये सुर्ख गुलाब
दिल को महकता गुलजार कर दिया।


............................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, April 21, 2013

{ २६१ } जी लें सुख के दो चार पल






आओ सजनि, जी लें सुख के दो चार पल

समय ने बढाईं जो दूरियाँ अब टल रहीं
विषम-विवशतायें हाथ अपने मल रहीं
सुधियों ने, सरोवर में खिलाये है कमल
आओ सजनि, जी लें सुख के दो चार पल।।१।।

छोड दें ये झंझावात की गहन परछाइयाँ
आओ नापें बढ कर व्योम की ऊँचाइयाँ
अब न पास आने दें विषम-विकल पल
आओ सजनि, जी लें सुख के दो चार पल।।२।।

रच गये हैं मिलन के छन्द गाने के लिये
संगीतमय पल प्राणों में सजाने के लिये
आओ गुनगुनायें हम इन्हे मचल-मचल
आओ सजनि, जी लें सुख के दो चार पल।।३।।


.................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल



Saturday, April 6, 2013

{ २६० } उदास मन






मन,
बहुत उदास है आज,
पर उसने
अपने शरीर को
उजले आवरण से
ढँक रखा है,
अपने चेहरे पर
चिपका ली है
एक बीमार सी मुस्कान
और खोज रहा है
मन के कँटीले बियावान में
सौगँधित सुमनों के बागीचे को।।

.................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, April 3, 2013

{ २५९ } हसीन शाम






कितनी हसी्न खिली है शाम
आओ टकरायें जाम से जाम।

लब भी गुनगुना उठे प्यार से
बताओ ऐसा कोई प्यारा नाम।

लौटॆं फ़िर से प्यार की खुश्बूयें
डूबे रँगीनियों में सुबहो-शाम।

टकरा कर गुलों की खुश्बू से
ऋतुयें भी करें हमको सलाम।

जो कम करे दिलों के बोझ को
ऐसे गमों से लें हम इन्तकाम।


...................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, March 31, 2013

{ २५८ } आई है मिलन की रात






देख मेरा प्रेम में महकना
भूल गये तारे भी छिपना
दिल भी भूल गया है घात
आओ सजनि ! आई है मिलन की रात।।१।।

आओ मिल कर गाये राग मल्हार
छा जायेगी फ़िर से जीवन में बहार
सजनि आओ करे कुछ बात
आओ सजनि ! आई है मिलन की रात।।२।।

खुशियों के दिन दूर नही हैं
मुझको अब मंजूर नहीं है
सजनि तेरे नयनों की बरसात
आओ सजनि ! आई है मिलन की रात।।३।।

भँवरा मन ही मन झूम रहा है
कलियों का मुख चूम रहा है
खिल उठा है हर गुल हर पात
आओ सजनि ! आई है मिलन की रात।।४।।


.............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल

Friday, March 29, 2013

{ २५७ } आशाओं के दीप जलाओ






आशाओं के दीप जलाओगे जब
चहुँ ओर प्रकाश ही प्रकाश होगा।

यदि टूट गये हों सपने तो क्या
यदि छूट गये हों अपने तो क्या
सबके सब चलते अपनी राहों पर
उजियारी- मतवारी चाहों पर।

पर राहों मे फ़ूल बिखराओगे जब
चहुँ ओर सुगन्ध-सुवास होगा।।१।।


मौसम भी तो बदले तेवर
दिशाहीन हो उडते कलेवर
रक्त गँध पूरित हवायें आती
छाती को चीर-चीर कर जाती।

पर बसन्त के गीत गुनगुनाओगे जब
चहुँ ओर मन-मुदित मधुमास होगा।।२।।


कल क्या होगा किसने देखा
क्यों डाल रहे माथे पर तिरछी रेखा
कामना ही सबको यहाँ छलती है
वर्तिका वेदना की ही जलती है।

पर प्रेम का संगीत बजाओगे जब
चहुँ ओर प्रेम-हास-परिहास होगा।।३।।


............................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Thursday, March 28, 2013

{ २५६ } बीती सुधियाँ






तट पर नदी के बैठे हुए नदी को जी भर देखते रहना
बीते दिनों की सुधियों को फ़िर नदी की धार से कहना।।

याद है वो पीपल की छाँव जहाँ हम-तुम
कभी बैठे हँसते हुए कभी रहे गुमसुम
वहाँ की सुधि पूछे तुम्हारी बेरुखी का कारण
कहता न कुछ भी बस देखता नदी का बहना।

तट पर नदी के बैठे हुए नदी को जी भर देखते रहना
बीते दिनों की सुधियों को फ़िर नदी की धार से कहना।।१।।

लिखे थे नाम उँगलियों से रेती पर जहाँ तुमने
डुबोये पाँव जहाँ पानी में उलीचा जल वहाँ हमने
तुम्हारे धार में उतरने की चपलता में रहे हम खोए
विस्मृत न होती है तुम्हारी देह से नदी का दहना।

तट पर नदी के बैठे हुए नदी को जी भर देखते रहना
बीते दिनों की सुधियों को फ़िर नदी की धार से कहना।।२।।

तैरता है जोड-बाकी सा विगत का अनुभव
नीड मे सोया हुआ है स्वप्न का कलरव
खूबसूरत स्वप्न में जब भी डूबता है मन
रुला देती मगर पल में विछोह का सहना।

तट पर नदी के बैठे हुए नदी को जी भर देखते रहना
बीते दिनों की सुधियों को फ़िर नदी की धार से कहना।।३।।


............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, March 27, 2013

{ २५५ } क्या थे इरादे और क्या कर चले





जाने क्या-क्या थे इरादे और क्या कर चले
जाने क्यों खुद को खुद से ही जुदा कर चले।

गुलजार चमन को उजाडने वाले कह रहे है
कहाँ अपने ही गुलशन को भुला कर चले।

सुकूँ मिल ही जायेगा इन काँटों की सेज पे
गुले-खुदगर्जी की सेज को ठुकरा कर चले।

गुनहगार हूँ जमाने का या कि मोहब्बत का
राह चले वफ़ा की पर ज़फ़ा कमा कर चले।

सपने बुनते-बुनते ही चकनाचूर हुए सपने
गमज़दा दिल मे टूटे सपने सजा कर चले।


........................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, March 18, 2013

{ २५४ } रूठ गईं चाँदनी रातें






जाने क्यों रूठ गयीं हमसे वो चाँदनी रातें
भूली-बिसरी यादें उनसे हुई वो मुलाकातें।

तुम्हे भी याद होंगे बहारों के सुनहरे पल
मुकद्दर की सौगातें मोहब्बत वाली रातें।

बिन बरसे गुजरे अब्रे-बाराँ ऐसा मैं सहरा
किस प्यासे पे हुई मोहब्बत की बरसातें।

नजर आती अपने यार की सूरत जो कहीं
दिल कहता ऐ खुदा हैं तेरी ही ये इनायाते।

फ़िर रहा दर-ब-दर जँजीरे-रुसवाई लिये
बन चुकी हैं तमाशा ज़िन्दगी की सौगाते।


........................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल

अब्रे-बाराँ = पानी वाले बादल
सहरा = जँगल
जँजीरे-रुसवाई = बदनामी से जकडा हुआ


Sunday, March 17, 2013

{ २५३ } मन करता है






मन करता है मदमाते मौसम में फ़िर से
रागमयी गीतों के मादक स्वर हो जायें।।

वो ठहरी-ठहरी घडियाँ
वो महकी-महकी रातें
वो गहरी-गहरी साँसें
वो बहकी-बहकी बातें

भटकी चाहों की मृदु कलिका फ़िर से
उन्मादी घटा सी बौरायें, मुखर हो जायें।
मन करता है मदमाते मौसम में फ़िर से
रागमयी गीतों के मादक स्वर हो जायें।।१।।

मधुपल जिसमें हों लसित
रातों की मीठी मनुहारें
मन-आँगन के नन्दनवन में
मचलें तप्त तृषित बहारें

प्रबल प्रभंजन बन कर आयें श्वासें फ़िर से
प्रमुदित मन उत्तुँग लहर हो जाये।
मन करता है मदमाते मौसम में फ़िर से
रागमयी गीतों के मादक स्वर हो जायें।।२।।

वो दिन कितने प्यारे होंगें
वो शामें कितनी कोमल होंगी
वो सुखदायी मादक रातें
उन्मादी प्रणय-पल होंगीं

रँग-बिरँगी स्वर्णिम स्वप्न निशा में फ़िर से
समर्पित तन-मन से जीवन सुखकर हो जाये।
मन करता है मदमाते मौसम में फ़िर से
रागमयी गीतों के मादक स्वर हो जायें।।३।।


-------------------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


Friday, March 8, 2013

{ २५२ } मुस्कान वीरानी है






मेरे हर ज़ख्म की खौफ़नाक कहानी है
मायूस चेहरे पे छाई मुस्कान वीरानी है।

गमों की चटक धूप झुलसा गयी है हमें
भावनायें हो चुकी मौन की निशानी है।

ज़िंदगी भर वक्त ने लम्हा-लम्हा लूटा
दर्दो-गम औ’ मुश्किलें हुईं दर्मियानी हैं।

आए न जिनको रहबरी का सलीका ही
हुआ काफ़िला उनकी सुपुर्दे-निगरानी है।

गुलों की जुस्तज़ू में हुई खारों से दोस्ती
बाद मुद्दत के सीरत उनकी पहचानी है।

अरमानों के शीशमहल मे छाई खामोशी
तनहाई का मौसम, शामे-गम सुहानी है।

आस की नींदों के ख्वाब सहर मे जुदा हुए
ऐ ज़िन्दगी ! कैसी बेरहम तेरी कहानी है।


--------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


रहबर = पथप्रदर्शक
सीरत = स्वभाव


Tuesday, March 5, 2013

{ २५१ } आ बसा कोई






निगाहों में आज आ बसा कोई
आँखों से पिला गया नशा कोई।

लगता कोई चाँदनी है साथ में
न होगा जमाने में हमसा कोई।

फ़िज़ा में गूँजे शहनाई की धुन
सूने दिल मे हुआ जलसा कोई।

रूह में भर गई जीने की आरजू
लगे इश्क का बादल बरसा कोई।

तेरे ही आगोश मे कटे ज़िन्दगी
और न कोई आरजू न नशा कोई।


....................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ २५० } कत्ल हुआ दिल






टकरात क्यों आइना पत्थर से बार-बार
डूबता है दिल दर्दे-समन्दर में बार-बार।

समझ ही न सका कि मेरा कुसूर क्या है
सुनता रहा सजा सितमगर से बार-बार।

अपने प्यार की शिकायत करूँ किस से
लुटा हूँ बीच राह गारतगर से बार-बार।

जिनके लिये जला किये शमा की तरह
कत्ल हुआ मैं उसी चारागर से बार-बार।

दरिया सा मस्त बहना था अपना अंदाज़
लड रही तकदीर अब मुकद्दर से बार-बार।


.................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


गारतगर = लुटेरा
चारागर = हकीम


Sunday, March 3, 2013

{ २४९ } याद तुम्हारी सता रही है






मृदुल-चँन्द्र किरण वातायन से
झाँक-झाँककर मुस्कुरा रही है।
आओ सजनि, याद तुम्हारी सता रही है।।

सुधियों के सागर में आनन
प्रतिबिम्बित होते पल-पल
लहराते बिखरे केश-कुन्तल
जैसे छाए हों सँध्या के बादल।

श्यामल-अँगों की मधुर गँध
प्राणों को लुभा रही है।
आओ सजनि, याद तुम्हारी सता रही है।।१।।

चपल चाँदनी जब झाँकती
झुरमुटों में से लजा कर
मौलश्री से सुवासित
वायु चलती मुस्कुरा कर।

मस्त-मस्त मँथर पवन
तन-मन गुदगुदा रही है।
आओ सजनि, याद तुम्हारी सता रही है।।२।।

और न अब प्यासे को भटकाओ
मन की आशाओं को न ठुकराओ
रूप-वारुणी के चषक पिलाओ
मन-मोहक रागिनी सुनाओ।

नूपुरों की मधुर ध्वनि
कँठ को लुभा रही है।
आओ सजनि, याद तुम्हारी सता रही है।।३।।


....................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Saturday, March 2, 2013

{ २४८ } प्रियतम बोलो तो, बोलो तो






मेरे प्राण ! तुम हो, कुन्दन-कुन्दन।
प्रियतम बोलो तो, बोलो तो।।

स्मृति-पट पर अब तक
मैंने, अनगिन चित्र उकेरे,
कितने ही आमंत्रण भेजे
मैंने, नित्य साँझ-सबेरे।

तुम हृद में, फ़िर भी मैं उनमन-उनमन,
मेरे प्राण ! तुम हो, कुन्दन-कुन्दन।
प्रियतम बोलो तो, बोलो तो।।१।।

तुम पूर्णिमा-सम मस्त यौवन
दग्ध-हृदय की मैं कथा हूँ
लिये मिलन की आस हृदय में
उत्ताल सागर मैं मथ रहा हूँ।

अर्पण हो जाने को, विचलन-विचलन,
मेरे प्राण ! तुम हो, कुन्दन-कुन्दन।
प्रियतम बोलो तो, बोलो तो।।२।।

नीले अम्बर की छाया में
खिली चाँदनी सा मुस्काना
अभिसार याचित रजनी में
छुई-मुई सा शरमा जाना।

साँसों के क्रम में दहकन-दहकन,
मेरे प्राण ! तुम हो, कुन्दन-कुन्दन
प्रियतम बोलो तो, बोलो तो।।३।।

घूँधट-पट खोलो, मैं भी देखूँ
अवगुँठन के पीछे कैसी माया,
यों तो तुमने पहले ही कर दी
अपनी चितवन से तरंगित काया।

तृषित मन विचरत, मधुवन-मधुवन,
मेरे प्राण ! तुम हो कुन्दन-कुन्दन।
प्रियतम बोलो तो, बोलो तो।।४।।

मेरे उर की विकल वेदना
प्रियतम तुम कब पहचानोगे,
मेरे मौन रुदन की भाषा
कब सुनोगे, कब जानोगे।

मेरी साँसों पर है आहों का बन्धन,
मेरे प्राण ! तुम हो कुन्दन-कुन्दन।
प्रियतम बोलो तो, बोलो तो।।५।।


.............................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


Sunday, February 24, 2013

{ २४७ } कैसे कह दूँ ये प्यास नही है





कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।

आस जब-तब लुभा रही है
प्यास और जगा रही है
मन हुआ तपता धरातल
दूर कहीं दिखता है जल
कैसे कह दूँ ये हुलास नही है।
कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।।

मोहित है मन तरंगित काया
जाने किसका नेह समाया
वश नही मन पाँखों पर
बैठे नैन चिरैय्या किन शाखों पर
कैसे कह दूँ ये मन का मधुमास नही है।
कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।।

वो कौन मुझको दूर से पुकारे
नेह दृष्टि से मुझको निहारे
अनुभूतियाँ नित हो रही सघन
देह की बढ रही तपन
कैसे कह दूँ ये आस नही है।
कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।।


................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Saturday, February 23, 2013

{ २४६ } हम और तुम





एक दूसरे का
हाथ थामे
नदी के तट तक
आ गये है
हम और तुम।

पागल सर्द हवा में
उसी तरह
लहरा रहा है
तुम्हारा आँचल
जैसे
नदी बहती है
कल-कल, कल-कल।

नदी में
जल का
सतत प्रवाह
वैसा ही है
जैसे
हमारा प्रेम अथाह।

मँत्रमुग्ध सा
मैं अपलक देख रहा हूँ
क्षितिज में
जहाँ पर आपस में
मिल रहे हैं
दो प्रेमी बादल
वो भी थामें हैं
एक दूसरे का हाथ
बिलकुल उसी प्रकार
जैसे
इस वक्त
नदी के तट पर
खडे हैं
हम और तुम।।


...................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, February 20, 2013

{ २४५ } कहाँ अपना ठिकाना है






थकन तो अगले सफ़र के लिये एक बहाना है
जिस्म बदलती रूह का कहाँ एक ठिकाना है।

पिये दर्द के प्याले मन ढकने को आँसू हैं कम
लाखों की भीड यहाँ, पर कोई नही पहचाना है।

दर्द ही पाया दर्द सँजोया दर्द ही जीता आया हूँ
दर्द ही है तकदीर हमारी, दर्द मे ही मुस्काना है।

जिस-जिस चेहरे में जब भी अपनापन है ढूँढा
उनसे पाया मैने हरदम दर्द का ही नजराना है।

खूब रोया खून के आँसू खुद को तनहा देख कर
हो अचम्भित खोजता, कहाँ अपना ठिकाना है।


......................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



Saturday, February 16, 2013

{ २४४ } यौवन





चँचल मन
सुगठित तन
दोनो का मिश्रण है यौवन।

चँचल नयन
हृदय की तपन
दोनो का मिश्रण है यौवन।

सरकता अवगुंठन
गर्वित अविचलन
दोनो का मिश्रण है यौवन।

चँचल चितवन
लाज और सिहरन
दोनो का मिश्रण है यौवन।

नख-शिख आकर्षण
श्रँगार और आभूषण
दोनो का मिश्रण है यौवन।

भुजपाश और आलिंगन
क्रीडा और क्रन्दन
दोनो का मिश्रण है यौवन।

साँसों की थिरकन
कसता भुजबन्धन
दोनो का मिश्रण है यौवन।

जब झूमे तन
जब नाचे मन
दोनो का मिश्रण है यौवन।


__________________ गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ २४३ } अब मन शुद्ध नही होते






अब मन शुद्ध नही होते।।

कपट, छल-छन्द के
गहरे दलदल में
हम रहते हैं सोते।
अब मन शुद्ध नही होते।।१।।

वैमनस्यता के कीचड में
गोते लगाने की आदत से
कभी मुक्त नही होते।
अब मन शुद्ध नही होते।।२।।

खुद को दुख में डुबो
दूसरों के खातिर
दुख की फ़सल है बोते।
अब मन शुद्ध नही होते।।३।।

घृणा, कुण्ठा और पाप की
गठरी सिर पर लाद
जीवन भर हैं ढोते।
अब मन शुद्ध नही होते।।४।।


------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल

Friday, February 15, 2013

{ २४२ } आया बसन्त






आया बसन्त
छाया बसन्त
प्रफ़ुल्लित मन-उच्छवास
मन-मुदित धरती-आकाश।।

अनुगुँजित हो उठा अन्तरमन
नर्तित है जन-जन, हर तन
बजे बाँसुरी स्वाँस-स्वाँस
प्रफ़ुल्लित मन-उच्छवास
मन-मुदित धरती-आकाश।।

आई अभिनन्दन की बेला
वन्दन, अर्चन की बेला
प्रति क्षण नर्तन और रास
प्रफ़ुल्लित मन-उच्छवास
मन-मुदित धरती-आकाश।।

प्रेमल पवन, सुरमई दिशायें
स्वप्निल नयन मुदित मुस्कायें
बिखरा चहुँ-दिश हास-परिहास
प्रफ़ुल्लित मन-उच्छवास
मन-मुदित धरती-आकाश।।

आया बसन्त
छाया बसन्त
प्रफ़ुल्लित मन-उच्छवास
मन-मुदित धरती-आकाश।।

------------------------------------ गोपाल कृष्ण शुक्ल


Thursday, February 14, 2013

{ २४१ } तनहाई में जब कभी...






तनहाई में
जब कभी
अपने ख्वाबों में
तुमसे मिलता हूँ________

सच बताऊँ प्रियतम
तुम्हे हृदय की
प्रत्येक उमंगों में
प्रतिबिम्बित करता हूँ_________

मानस-दर्पण में
प्रीति-पुष्प के
सुगँधित पराग को
रचता हूँ___________

मानस-पटल पर
कौंधते बार-बार
चन्द्र-सम आकर्षण को
चूमने को आतुर
ओष्ठ____________

प्रेमातुर हृदय के
स्पंदन में
वीणा की ध्वनि और
कोमल कँठ-स्वर का
अभिनन्दन करता हूँ________

तनहाई में
जब कभी
अपने ख्वाबों में
तुमसे मिलता हूँ___________


------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ २४० } एक सन्नाटा






एक सन्नाटा
जो
मेरी किस्मत में
समा गया है।

एक पल को भी
मुझसे अलग
नही होता है।

दमघोंटू भीड में भी
वो कहीं
नहीं खोता है।

साथ-साथ
चलता है मेरे
एक सन्नाटा
मेरी किस्मत में
समा गया है।।


.................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, February 13, 2013

{ २३९ } इश्क का गुलाब






एत्माद की जमीं पर ही खिला करता इश्क का गुलाब
लिखो वरक पर वरक, सँवर जाये इश्क की किताब।

दुनिया में मजहबे-इश्क को निभाना जरा मुश्किल है
भ्रम में उलझी हुई है दुनिया पर कहते इश्क है खराब।

वो क्या समझ सकेंगें कभी किसी के पाक इश्क को
जो न लहरायें परचम और न गायें इश्क का इंकलाब।

इश्क का फ़लसफ़ा समझना हर किसी की कूबत नहीं
इश्क सिर्फ़ इश्क ही है इसे कुछ और न समझे जनाब।

अब दुनिया कुछ भी समझती रहे पर मेरा यही सच है
इश्क ही है अब मेरी जन्नत इश्क ही है मेरा आफ़ताब।


--------------------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Tuesday, February 12, 2013

{ २३८ } मधुयामिनी






उसने अपने घर के
वातायन पर
अपनी कोहनी को
टिका कर
अपनी सुकोमल
हथेलियों को हिलाते हुए
गुलाब की पाँखुरी जैसे
मादक नयनों से
मेरी तरफ़
प्रेम भरी दृष्टि से देखा
और कहा_________
आओ ! आओ !! चले आओ !!!

मैने कहा,
ओ ! मधुयामिनी,
तुम निर्झर झरने सी
स्वच्छ और पावन
और मैं,
एक यायावर________
कितना बेमेल है ये संगम....

उसने अपनी
सुकुमार ग्रीवा को
हिलाकर कहा......

अरे पगले !
सब तो
तुम पर अर्पण कर दिया
मधुर-मधुर
मदिर-मदिर_________

मैं अवाक,
अपलक, निशब्द हो
उसे देखता ही रह गया।।


----------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


Saturday, February 9, 2013

{ २३७ } मोहब्बत छुपाया नही करते





इश्क समझने में वक्त जाया नही करते
जब हो गया इश्क तो ठुकराया नहीं करते।

जिनके दिल लबरेज़ हैं सच्ची मोहब्बत से
वो मोहब्बत किसी से छुपाया नही करते।

है भरोसा जिन्हे अपने इश्क पे, हमदम पे
वो हुस्न को देख कर भरमाया नहीं करते।

लगाता है इश्क की दरिया में जो भी डुबकी
वो दरिया छोड साहिल पे जाया नहीं करते।

रँगे-इश्क अल्फ़ाज़े-इश्क औ’ धडकने इश्क
नेमतें इश्क की इनसे घबराया नहीं करते।



--------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल


Friday, February 8, 2013

{ २३६ } पूरा शहर बीमार नज़र आता है






पूरा शहर अब बीमार नज़र आता है
यहाँ हर शख्स बेज़ार नज़र आता है।

नाज़ुक कोयल अपनी गज़ल पढे कैसे
सजा कौव्वों का दरबार नज़र आता है।

निर्झर झरने कैद हो चुके हैं चट्टानों में
गुलो-गुलशन खरज़ार नजर आता है।

प्यार, आरजू, खुश्बू, चाहत हुई गायब
बस दर्दो-गम का मीनार नज़र आता है।

सच्चाइयाँ दफ़्न हो चुकी हैं कब्रगाह में
हर तरफ़ झूठ का बाज़ार नजर आता है।


____________________________ गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, February 6, 2013

{ २३५ } सिर्फ़ तुम्हारे लिये





जिक्र जब-जब आपका चलता है
दिल मेरा मचल-मचल उठता है।

जब से आप आए मेरे चमन में
गुलशन महका-महका करता है।

घटती-बढती हैं दिल की धडकने
जब भी अक्श आपका दिखता है।

कोयल की कुहू-कुहू अब हरतरफ़
दिल का सितार भी बजा करता है।

अब हर वक्त रहती होठों पर हँसी
दिल आपका शुक्रिया अदा करता है।


_____________________ गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २३४ } बेगुनाही की सजा






दूर-दूर तक नजर आता क्या है
सिर्फ़ अश्कों का बहता दरिया है।

लुट गईं बहारें, छा गया पतझड
उदास चमन, गुमसुम फ़िज़ा है।

ओझल है सहर की नजर से सहर
मँजिल बहुत दूर बुझ रहा दिया है।

दिल पर जख्म हुए गहरे - गहरे
ज़िन्दगी मे ये भी हुआ हादसा है।

ज़िन्दगी की हैं ये ही सच्चाइयाँ
बे-गुनाहों को ही मिली सजा है।


_______________ गोपाल कृष्ण शुक्ल


सहर = सबेरा


Wednesday, January 23, 2013

{ २३३ } ढल गयी प्यार की गुनगुनी धूप






जल रही है आग सी दिन-रात आँखों में
चुभता दर्दे-जीस्त का आघात आँखों में।

अजब सा मौन छा गया शुष्क अधरों पर
सिसक रही अनकही सी बात आँखों में।

किस्मत में लिखे हिज्र के दिन पर्वतों से
तडपते ही गुजर जाती हर रात आँखों में।

क्यों ढल गयी प्यार की वो गुनगुनी धूप
बार-बार उठते यही सवालात आँखों में।

अब गम की राहों में गुजरेगी ज़िन्दगी
सजा लीं ख्वाबों की सौगात आँखों में।


............................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल