कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।
आस जब-तब लुभा रही है
प्यास और जगा रही है
मन हुआ तपता धरातल
दूर कहीं दिखता है जल
कैसे कह दूँ ये हुलास नही है।
कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।।
मोहित है मन तरंगित काया
जाने किसका नेह समाया
वश नही मन पाँखों पर
बैठे नैन चिरैय्या किन शाखों पर
कैसे कह दूँ ये मन का मधुमास नही है।
कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।।
वो कौन मुझको दूर से पुकारे
नेह दृष्टि से मुझको निहारे
अनुभूतियाँ नित हो रही सघन
देह की बढ रही तपन
कैसे कह दूँ ये आस नही है।
कैसे कह दूँ ये प्यास नही है।।
................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल