कब तक चुप रहेंगे बेचारों से हम,
त्रस्त कब तक रहेंगे अजारों से हम|
आग जंगल की तरफ़ अब बढ रही,
दूर कब तक रहेंगे अँगारों से हम।
दर्द से बोझिल हो गई अब ज़िन्दगी,
प्यार कब तक करेंगे गुबारों से हम।
गिर रही बिजलियाँ आशियाँ जल रहे,
छुपते कब तक रहेगे मक्कारों से हम|
तेज है सैलाब और दरके हुए बाँध है,
और कब तक थमेंगे कगारों से हम।
दोस्ती है गिध्द से जो नोचती ज़िन्दगी,
और कब तक दबेंगे अत्याचारों से हम।
................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल
(अजार = रोग)