Thursday, April 28, 2011
Tuesday, April 26, 2011
{ ३२ } पीने के सबब - २
Friday, April 22, 2011
{ ३१ } घर
Wednesday, April 13, 2011
{ ३० } तो चलूँ..........
इस कैद से रिहाई का परवाना मिल जाये, तो चलूँ,
इन सांसों को आखिरी ठिकाना मिल जाये, तो चलूँ ।
ज़िन्दगी से हुई कुछ ऐसी आशनाई कि मदहोश हूँ,
पहले जरा मै कुछ होश में तो आ जाऊं, तो चलूँ ।
ज़िन्दगी की हमसफ़र है सिर्फ़ खामोंशियाँ ही मेरी,
कुछ तो सुना दूँ इन आँसुंओं की दास्तां, तो चलूँ ।
साथ चल रहे तमाम लोग, सब की अपनी मंजिले,
तनहा, सफ़र मे, एक शीरो-शकर बना लूं, तो चलूँ ।
औरों के ख्वाब हकीकत मे बदलते ज़िन्दगी बीत गई,
वक्त अब खुद के लिये निकालूँ और जी लूँ, तो चलूँ ।
ख्वाबों को बुनता रहा और ख्वाबों को ही जीता रहा,
आखिरी वक्त अब कुछ तो सबाब बना लूँ, तो चलूँ ।
अब सफ़र खत्म हो चला, शमा भी अब बीमार हुई,
अपनी ताजा गजल लिखूँ और गुनगुना लूँ तो चलूँ ।
................................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल
1- शीरो-शकर=अभिन्न मित्र
2- सबाब=पुण्य
Friday, April 8, 2011
{ २९ } पीने के सबब - १
बुतकदा=मंदिर, रिसाले=किताबें, वस्ल=पिया मिलन,
Friday, April 1, 2011
{ २८ } विरह-व्यथा
उसके नयनों की भाषा
जानी पहचानी थी
पर न जाने क्यो
अब मेरे लिये अबूझ हुई ।
उसके साँसों की मधुर गन्ध
थी भीनी-भीनी मिठास लिये
पर न जाने क्यों
अब वह मुझसे रूठ गयी ।
उसके पुष्प-पाँखुरी जैसे होठ
थे मीठे बोलों वाले
पर न जाने क्यो
अब वह मुझसे अबोल हुए ।
उसके अन्तर्हास की दन्तावलियाँ
थी मेरे अन्तस की शमता
पर न जाने क्यों
अब वह मेरे लिये निरुध्द हुई ।
उसके काले मेघों जैसे केशों की वेणी
थी मेरी गंगा-यमुना
पर न जाने क्यो
अब वह मेरे लिये पंकिल हुईं ।
उसके पाँवों के पायल की रुनझुन
था मेरा बसन्त गीत
पर न जाने क्यों
अब वह मेरे लिये बिरहा हुई ।
पाई सजा विरह की
जान न पाया अपना दोष
मिलेगा कभी तो तुम्हारा साथ
अब तो निरन्तर बस यही आस ॥
....................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल