Thursday, April 28, 2011

{ ३३ } आवरण






आदमी को,
आदमी बनने के लिये,
एक आवरण की आवश्यकता होती है।

शरीर पर ओढ़ा हुआ आवरण
चाहे कपड़े का हो
या फ़िर,
सभ्यता और सलीके का।

शरीर का आवरण उतारा तो
आदमी,
आदमी नही रहता।

सिर्फ़ नंगा होता है।
सिर्फ़ नंगा॥

……………………………… गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, April 26, 2011

{ ३२ } पीने के सबब - २








भटकता हूँ घने वन मे, सदा जब देता नही कोई, तो पी लेता हूँ,
तपिश सहता, दामन की हवा जब देता नही कोई, तो पी लेता हूँ ।
थोडा सा जी लेता हूँ ।।


कितनी दुश्वार है यहाँ दो जून की रोटी जरा उस मजदूर से पूछो,
फ़ुटपाथ पर ओढे आसमान जब वो बेसुध सोता है, तो पी लेता हूँ ।
थोडा सा जी लेता हूँ ।।


बेटी के पीले हो जायें हाथ, भले ही बिक जाये खेत का टुकडा,
रोए गरीब किसान, ढोए एक और नया पैबन्द, तो पी लेता हूँ ।
थोडा सा जी लेता हूँ ।।


बेटा संग बहू के मस्त हो घूमता, फ़ेंक रहा है पकवानो की जूठन,
बाप कराहे कुटिया मे भूख से तडपे, देख समय का फ़ेर, पी लेता हूँ ।
थोडा सा जी लेता हूँ ।।


ज़िन्दगी भी ज़िन्दगी से ऊब कर माँगे सिर्फ़ मौत की दुआ रब से,
होती हैं साजिशे ऐसी जब-जब ज़िन्दगी के साथ, तो पी लेता हूँ ।
थोडा सा जी लेता हूँ ।।



..................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


Friday, April 22, 2011

{ ३१ } घर





घर,
ईंट की दीवार,
कंक्रीट की छत,
लकडी के दरवाजे,
लोहे की खिडकी,
इन सबको मिला कर
बनाया गया
एक ढाँचा।

यह ढाँचा ही
क्या घर है?

या फ़िर........

कुछ पुरुष,
कुछ स्त्रियाँ,
कुछ बच्चे,

सुबह-शाम पूजा की घन्टी,
पुरुषों की आवाजें,
स्त्रियों की चूडियों की खनखनाहट,
बच्चों के हुडदंग,
बर्तनों की खटपट,
किताबों के पन्नों की खडखडाहट,
आपस के सुख-दुख,
आपस की कुनकुनाहट,

आपस का रूठना
और
आपस का मनाना,

सुबह से शाम तक
काम में खटना,
शाम को
पुरुषों की वापसी तक,
द्वार का तकना,
और, रात्रि को
अविघात विश्राम।

हाँ,
यह एक घर है,
और
वह एक ढाँचा॥

........................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, April 13, 2011

{ ३० } तो चलूँ..........






इस कैद से रिहाई का परवाना मिल जाये, तो चलूँ,

इन सांसों को आखिरी ठिकाना मिल जाये, तो चलूँ ।


ज़िन्दगी से हुई कुछ ऐसी आशनाई कि मदहोश हूँ,

पहले जरा मै कुछ होश में तो आ जाऊं, तो चलूँ ।


ज़िन्दगी की हमसफ़र है सिर्फ़ खामोंशियाँ ही मेरी,

कुछ तो सुना दूँ इन आँसुंओं की दास्तां, तो चलूँ ।


साथ चल रहे तमाम लोग, सब की अपनी मंजिले,

तनहा, सफ़र मे, एक शीरो-शकर बना लूं, तो चलूँ ।


औरों के ख्वाब हकीकत मे बदलते ज़िन्दगी बीत गई,

वक्त अब खुद के लिये निकालूँ और जी लूँ, तो चलूँ ।


ख्वाबों को बुनता रहा और ख्वाबों को ही जीता रहा,

आखिरी वक्त अब कुछ तो सबाब बना लूँ, तो चलूँ ।


अब सफ़र खत्म हो चला, शमा भी अब बीमार हुई,

अपनी ताजा गजल लिखूँ और गुनगुना लूँ तो चलूँ ।



................................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


1- शीरो-शकर=अभिन्न मित्र

2- सबाब=पुण्य



Friday, April 8, 2011

{ २९ } पीने के सबब - १







बेवजह पूछता है ये जमाना कि मैं क्यॊ पी लेता हूं,
कितना सताया जालिम ने, सोचता हूं तो पी लेता हूं।
थोडा सा जी लेता हू ।।

मोहब्बत की दुनिया का है वो एक अनमोल रतन,
देखे जब-जब वो काफ़िर नजरों से तो पी लेता हूं।
थोडा सा जी लेता हू ।।

शबो-रोज़ मेरे खयालों में रहां करता है जो चेहरा,
वो ही ढाये कहर पर कहर दिल पे, तो पी लेता हूं।
थोडा सा जी लेता हू ।।

इबादत मेरी उससे ही शुरू औ’ उसी पे खत्म होती है,
तो क्यों मै बुतकदे जाऊं ? आओ, चलो पी लेता हूं ।
थोडा सा जी लेता हू ।।

बडे खुशनसीब है वे रिसाले जो संजोये हैं उसके खत,
देखूँ जब भी मै वो रिसाले तो मौज में ही पी लेता हूं।
थोडा सा जी लेता हू ।।

जिस तस्वीर को भुलाये हुए एक जमाना बीत गया,
वो आये और मेरे पहलू में बैठ जाये तो पी लेता हूं।
थोडा सा जी लेता हू ।।

बस चार पल थे वस्ल के, दो-चार घडियां प्यार की,
वे यादें-मुलाकातें दिल मे है, खामोशी से पी लेता हूं।
थोडा सा जी लेता हू ।।

बस एक रात की ही मुलाकात मिली, ये तकदीर है,
कल की किसे है खबर, चलो, थोडी सी पी लेता हूँ ।
थोडा सा जी लेता हू ।।

लोग हंस कर पूछते हैं जब भी मेरी तनहाई का सबब,
उसका चेहरा और आंसू आते आंखो मे, तो पी लेता हूं।
थोडा सा जी लेता हू ।।


................................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल



काफ़िर नजर=प्रेम भरी नजर, शबो-रोज़=दिन-रात,
बुतकदा=मंदिर,
रिसाले=किताबें, वस्ल=पिया मिलन,

Friday, April 1, 2011

{ २८ } विरह-व्यथा






उसके नयनों की भाषा

जानी पहचानी थी

पर न जाने क्यो

अब मेरे लिये अबूझ हुई ।



उसके साँसों की मधुर गन्ध

थी भीनी-भीनी मिठास लिये

पर न जाने क्यों

अब वह मुझसे रूठ गयी ।



उसके पुष्प-पाँखुरी जैसे होठ

थे मीठे बोलों वाले

पर न जाने क्यो

अब वह मुझसे अबोल हुए ।



उसके अन्तर्हास की दन्तावलियाँ

थी मेरे अन्तस की शमता

पर न जाने क्यों

अब वह मेरे लिये निरुध्द हुई ।



उसके काले मेघों जैसे केशों की वेणी

थी मेरी गंगा-यमुना

पर न जाने क्यो

अब वह मेरे लिये पंकिल हुईं ।



उसके पाँवों के पायल की रुनझुन

था मेरा बसन्त गीत

पर न जाने क्यों

अब वह मेरे लिये बिरहा हुई ।



पाई सजा विरह की

जान न पाया अपना दोष

मिलेगा कभी तो तुम्हारा साथ

अब तो निरन्तर बस यही आस ॥


....................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल