Sunday, March 29, 2015

{ ३०४ } रात ढ़ली जाती है






चढ़ी हुई रात यूँ ही ढ़ली चली जाती है
साथ ज़िगर को भी चीरे चली जाती है।

कल तलक थी जो साथ में ही मेरे, आज
हर सूँ देखा कहीं वो नज़र नहीं आती है।

मेरा टूटा हुआ दिल बिखरा पड़ा हरतरफ़
न जाने कैसे - कैसे वोह सितम ढ़ाती है।

कुछ पल को तो करीब आ जा ओ जालिम
दिल की प्यास हर सूँ चीखती चिल्लाती है।

अब मुझसे कतई रहा जाता नहीं तेरे बिना
ये ज़िन्दगी दर्द की ही जागीर हुई जाती है।


.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Tuesday, March 24, 2015

{ ३०३ } सन्नाटा





चारो तरफ़ घुप्प अँधेरा
वातावरण में गूँज रहे हैं
चीटियों से फ़ुसफ़ुसाते शब्द
अचानक एक किरण सी चमकती
पर ऐसा क्यों लगता है कि
अभी सब किसी गहरी खोह में
अदृश्य हो जायेगा,
सिर्फ़ बचा रह जायेगा
पीड़ादायी, रेंगता हुआ सन्नाटा।।

............................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, March 7, 2015

{ ३०२ } हमें तुमसे बहुत प्यार है





ओ नाजनीन हमें तुमसे बहुत प्यार है
पर जमाना बना हुआ बीच मे दीवार है।

ये हमारे प्यार की ही मजबूत नींव है
होती रहती जो कभी-कभी तकरार है।

तड़पना, जगना और राह का तकना
यही मोहब्बत का असली किरदार है।

हमे तन्हा प्यार के सफ़र में न छोड़ना
आसां नही इश्क की राह बहुत दुश्वार है।

चले जायेंगे एक दिन दुनिया छोड़कर
पर कहते रहेंगे कि हमे तुमसे प्यार है।

........................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल